Friday, December 6, 2019

الليرة السورية: لماذا تتدهور قيمتها وكيف تتأثر بالأزمة اللبنانية؟

تزامن الانهيار المتسارع لليرة السورية مع تدهور سعر صرف الليرة اللبنانية مقابل الدولار الأمريكي الذي ازداد مع الاحتجاجات منتصف أكتوبر/تشرين الأول.
واللافت أن سعر صرف الليرة السورية انخفض مقابل الدولار إلى 800 ليرة بعد أن لامس الألف في السوق السوداء، وترافق ذلك مع تحسن سعر صرف الليرة اللبنانية الذي وصل إلى حوالى 2000.
وقبل بدء احتجاجات لبنان، كان الدولار الأمريكي يعادل حوالى 650 ليرة سورية، في حين لا يزال المصرف المركزي السوري يثبت سعر الصرف عند 434 ليرة.

لبنان وسوريا بلد واحد!

تصف الخبيرة الاقتصادية ليال منصور الواقع، بأن لبنان وسوريا كأنما "أصبحا بلداً واحداً فيما يخص توفر الدولار أو ندرته".
وترجع أزمة الليرة السورية إلى التوقف شبه الكامل في تدفق الدولار الأمريكي إلى السوق السورية، الذي يعتمد بشكل أساسي على السوق اللبنانية منذ بدء ا
لكن الخبير الاقتصادي، شادي أحمد، يرى أن من بين أسباب الأزمة أيضاً العملية العسكرية المحتملة في إدلب والشمال الشرقي، مما أدى بجماعات المعارضة المسلحة إلى جمع الدولار من الأسواق.
ويعزو شادي الأزمة إلى سبب رئيسي هو العقوبات الأمريكية والأوروبية، إضافة إلى المضاربات الداخلية، فمن الملاحظ ارتفاع سعر الدولار بين ساعة وأخرى، بحسب ما يقوله أحمد.

الأسعار في ارتفاع

يعيد الباعة والتجار السوريون تسعير سلعهم وفق سعر الصرف الجديد، وقد ارتفعت الأسعار بنسبة عالية، وفق وسائل إعلام عربية.
  • "في رمضان يكلفني الإفطار في مطعم بدمشق سدس راتبي"
وقالت رسامة سورية، فضلت عدم التصريح باسمها، لبي بي سي إن سعر معدات الرسم ارتفع كثيراً مقابل سعر بيع اللوحات التي تعاني من قلة الطلب عليها.
وفرضت الحكومة السورية على التجار السوريين إيداع نسبة 25 في المئة في المصرف المركزي من قيمة الصفقات إلى حين وصول البضاعة المستوردة. لكن تقلب قيمة العملة، يؤدي إلى خسارتهم جزءاً من قيمة المبلغ المودع، مما يدفعهم إلى رفع سعر السلع.
وعلى مستوى الأجور، يقول موظف في إحدى الإدارت إن مرتبه ينفد مباشرة لقاء إيجار منزله، إنه يضطر إلى العيش هو وعائلته على المساعدات.
لصراع عام 2011 عندما لجأ التجار السوريون إلى المصارف اللبنانية لإيداع أموالهم فيها، وذلك بسبب العقوبات الأمريكية التي تحظر التعاملات التجارية مع دمشق، فلا يمكن تحويل الدولار مباشرة إلى سوريا.
كما يلجأ السوريون خارج الشرق الأوسط إلى النظام المالي اللبناني كقناة لإرسال أموال إلى أقاربهم تقدر بمئات الملايين كل عام.
وتقول مواطنة سورية مقيمة في لبنان لبي بي سي إن أصدقاءها المغتربين يرسلون أموالاً إلى لبنان عبر تحويلات بنكية، لإرسالها إلى ذويهم في سوريا عبر سائقي أجرة لقاء نسبة.
لكن هؤلاء جميعاً يصطدمون اليوم بفرض المصارف اللبنانية سقوفاً على عمليات السحب، وإيقافها تقريبا للتحويلات الخارجية.
وتقدر قيمة الودائع السورية في البنوك اللبنانية بعشرات المليارات من الدولارات.
بُعد آخر للأزمة
توقع خبراء اقتصاديون تدهور سعر صرف الليرة السورية منذ قرابة عام، وعزوا ذلك، في جزء منه، إلى تغيّب الحكومة عن دعم الصناعة المحلية.
ومع توسع رقعة المنطقة التي تسيطر عليها الحكومة السورية ازداد الطلب على البضاعة. ووفق مراقبين طالبت الحكومة الصناعيين بتراكمات مالية ورفعت الضرائب مما دفع بعضهم إلى وقف أعمالهم، ليزداد الاعتماد على الاستيراد الذي يستنزف الدولار.
كما أُغرِقت السوق بالمواد المهربة التي تباع بسعر أقل من السلع المحلية.

Thursday, November 21, 2019

और इसी चक्कर में असली ग्राहक इन होटलों से दूर रहता था

यहां ये याद करना भी ज़रूरी है कि 1991 में फ़ैसला होने के बावजूद 2001 तक सरकार इस रास्ते सिर्फ़ 20078 करोड़ रुपए ही जुटा पाई थी, जबकि लक्ष्य था 54 हज़ार करोड़ रुपए का. 1991-92 में 31 कंपनियों में हिस्सा बेचकर क़रीब तीन हज़ार करोड़ रुपए मिले थे, यानी शुरुआत तुरंत हो गई थी. जी वी रामकृष्ण की अध्यक्षता में विनिवेश आयोग भी 1996 तक 13 रिपोर्ट दे चुका था.
उसने 57 कंपनियों में हिस्सेदारी बेचने की सिफ़ारिश की थी. तब भी दस साल में ये लक्ष्य पूरा क्यों नहीं हो पाया? इसके जवाब में मुंबई स्टॉक एक्सचेंज की वेबसाइट पर सात कारण गिनाए गए हैं-
1. बाज़ार की हालत ठीक नहीं.
2. सरकार ने बिक्री का जो प्रस्ताव रखा वो निजी क्षेत्र के निवेशकों के लिए आकर्षक नहीं था.
3. वैल्यूएशन यानी बिक्री के भाव का हिसाब लगाने पर भारी विरोध.
4. हिस्सेदारी बेचने की कोई साफ़ नीति नहीं थी.
5. कर्मचारियों और ट्रेड यूनियनों का जोरदार विरोध.
6. बिक्री के काम में पारदर्शिता का अभाव.
7. राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी.
और इस दौरान जो विनिवेश या हिस्सा बिक्री हुई भी वो ज़्यादातर कंपनियों में छोटी छोटी हिस्सेदारी बेचकर हुई. इन शेयरों की बिक्री से मिलनेवाली रकम भी बहुत कम थी, जबकि इसमें इंडियन ऑयल, बीपीसीएल, एचपीसीएल, गैस ऑथोरिटी और विदेश संचार निगम जैसी ब्लू चिप कंपनियों के शेयर शामिल थे. वजह साफ़ थी, प्राइवेट इन्वेस्टरों को किसी ऐसी कंपनी के शेयर खऱीदने में कोई दिलचस्पी थी नहीं जिसे चलाने का काम बाद में भी सरकार के इशारे पर ही होता रहनेवाला है.
इसलिए जो शेयर बिके भी वो ज़्यादातर घरेलू वित्तीय संस्थानों यानी एलआइसी और यूटीआई जैसे संस्थानों ने ही खऱीदे. दाम ज़्यादा नहीं थे इसलिए वक्त के साथ ये निवेश फ़ायदेमंद तो रहा. लेकिन अगर पब्लिक सेक्टर यानि पब्लिक के पैसे से चलनेवाली कंपनियों के शेयर वापस पब्लिक सेक्टर के ही संसाधनों के हाथ जाने हैं तो सरकार को या सरकारी ख़जाने को मिला क्या? इसकी टोपी उसके सर वाला ये खेल कई और तरह से भी होता है.
अभी एचपीसीएल का विनिवेश होना था.पूरा कंपनी एक दूसरी सरकारी कंपनी ओएनजीसी को सौंप दी गई, या बाज़ार की भाषा में कहें तो चिपका दी गई. म
लेकिन फिर इसका एक पहलू और है.जब देश आज़ाद हुआ था, तब बहुत से काम ऐसे थे जो सरकार न करती तो शायद नहीं हो पाते. होते तो किस अंदाज़ में होते ये पता नहीं. बड़े बिजलीघर लगाने हों, बांध बनाने हों, रिफ़ाइनरी बनानी हों, इस्पात के कारखाने लगाने हों या फिर इंफ्रास्ट्रक्चर के बड़े प्रोजेक्ट तैयार करने हों. शायद इसीलिए सरकार ने इन्हें खुद करने की ठानी और जवाहरलाल नेहरू ने इन उद्योगों को आधुनिक भारत के नए मंदिर बताया.
हो सकता है कि वक्त के साथ अब ये ज़रूरी न रह गया हो.लेकिन अब भी इस बात की क्या गारंटी है कि सरकार बाहर हो जाएगी तो प्राइवेट कंपनियां मनमानी नहीं करेंगी? गारंटी वैसे भी क्या है. टेलिकॉम सेक्टर में सरकार और रेगुलेटर की नाक के नीचे, बल्कि उसकी शह पर जिस तरह एक कंपनी ने बाज़ार पर कब्जा किया वो किसे नहीं दिख रहा है?
और पब्लिक सेक्टर में जो कंपनियां बरबाद हुईं उनकी बरबादी की ज़िम्मेदारी किसकी है? क्या ये सच नहीं है कि सरकार ने मुनाफ़ा कमानेवाली कंपनियों को दुधारू गाय की तरह इस्तेमाल किया और दूध तो दूध खून तक निचोड़ लिया. बीएसएनएल और एमटीएनएल आज से दस साल पहले तक किसी भी प्राइवेट कंपनी से मुक़ाबला कर रहे थे.
मुझे याद है जब एमटीएनएल ने मोबाइल फोन लॉंच किया तब उसके चेयरमैन एस राजगोपालन ने मुझसे ही कहा था. 'मोबाइल की ज़रूरत मेरे जैसे लोगों को नहीं, उस प्लंबर या इलेक्ट्रीशियन को है जो दिन भर घर से बाहर रहता है और इस चक्कर में बहुत से ग्राहक खो देता है.' तब मज़ाक़ सा लगा था मुझे, पर सच था. वो सपना तो आज से बहुत पहले सच हो गया लेकिन वो कंपनी खुद फसाना बन गई है. हालत ये है कि अब उसके बिक़ने पर भी शक़ है.
एयर इंडिया, आइटी़डीसी और होटल कॉर्पोरेशन की कहानी और दुखभरी है. मंत्रियों, नेताओं और सरकारी अफसरों ने जमकर इनका दुरुपयोग किया. इकोनॉमी टिकट ख़रीदकर बिजनेस या फर्स्ट क्लास में अपग्रेड तो एयर इंडिया में जैसे कुछ था ही नहीं. इसी चक्कर में बिजनेस क्लास से जाने वाले यात्रियों को टिकट तक नहीं मिल पाते थे.
बस मुफ्तखोरों की सेवा. यही हाल होटलों का था. रजिस्टर में चढ़ाकर या बिना चढ़ाए, बिना बिल भरे या भारी डिस्काउंट के साथ कमरों में क़ब्जा बना रहता था मुफ्तखोरों का और इसी चक्कर में असली ग्राहक इन होटलों से दूर रहता था.
जे की बात ये है कि ओएनजीसी का नाम भी उन कंपनियों की लिस्ट में शामिल है जिनमें सरकार की बड़ी हिस्सेदारी बिक सकती है.
बाज़ार के जानकार सरकार को सलाह दे चुके हैं कि कौन सी कंपनियों में पूरी हिस्सेदारी बेची जाए तो सरकार को तत्काल दस लाख करोड़ रुपए से ज़्यादा की रकम मिल सकती है.और अगर इन्हीं कंपनियों में सिर्फ़ इक्यावन प्रतिशत से ऊपर की हिस्सेदारी ही बेच दी जाए तब भी क़रीब ढाई लाख करोड़ रुपए से ज़्यादा मिलेगें.
हालांकि ये सलाह पिछले साल दी गई थी.नाम न बताने की शर्त पर एक बड़े फंड मैनेजर ने कहा कि ज़्यादातर सरकारी कंपनियां एक तरह से पैरासाइट या परजीवी हैं जो अर्थतंत्र का खून चूस रही हैं. ज़ाहिर है वो भारी मुनाफे़ वाली कंपनियों की बात नहीं कर रहे.अपने तर्क के समर्थन में उनका कहना है कि जब घाटा होता है तो इन्हें सरकार से मदद चाहिए होती है. कर्ज की ज़रूरत है तो जहां बाज़ार में बारह परसेंट ब्याज़ पर क़र्ज मिल रहा है, तो इन्हें छह परसेंट पर मिल जाता है क्योंकि पीछे सरकार की गारंटी है.
ये एक तरह की सब्सिडी है.ऐसे ही इन कंपनियों के पेंशन फंड में गिरावट आई तो उसकी कमी सरकार को भरनी पड़ती है.और कहीं नए प्रोजेक्ट लगाने हों तो सरकार ही इन्हें सस्ते दामों पर ज़मीन भी दिलवाती है. ऐसी पूरी लिस्ट है. किसी कंपनी पर वो लिस्ट लंबी हो तो किसी पर छोटी.

Friday, November 1, 2019

صحف بريطانية تناقش "سماح ترامب بأنشطة نووية"روسية وصينية في إيران، وزيارة الفرعون الصغير إلى لندن

ناقشت صحف بريطانية صادرة صباح الجمعة في نسخها الورقية والرقمية، "سماح ترامب باستثناءات لبعض الدول من العقوبات المفروضة على إيران" ومأساة الحرب في اليمن، علاوة على "زيارة توت عنخ أمون الأخيرة للندن".
الإندبندنت أونلاين نشرت تقريرا لمراسلتها الديبلوماسية نجار مرتضوي بعنوان "ترامب يعود للسماح باستثناءات في العقوبات على طهران للسماح لروسيا والصين وأوروبا بمواصلة العمل النووي في إيران"
تقول المراسلة إن الرئيس الأمريكي دونالدر ترامب سيعود مرة اخرى للسماح باستثناء بعض الدول من العقوبات الاقتصادية المفروضة على إيران في خطوة تهدف لإتاحة الفرصة أمام دول مثل روسيا والصين والاتحاد الأوروبي بمواصلة الجهد لمنع طهران من تصنيع سلاح نووي.
وتضيف مرتضوي أن قرار ترامب يأتي رغم تحذيرات شديدة من الصقور في الخارجية الأمريكية ,سعيهم بقوة لمنع صدور القرار.
وتوضح مرتضوي أن الاستثناءات تمنح بعض الشركات الحق في التعامل الاقتصادي مع إيران وعقد صفقات معها لفترات محددة وفي قطاعات مختلفة منها القطاع الاستخدامات المدنية للطاقة النووية وبالتعاون مع وكالة الطاقة الذرية الوطنية في إيران.
وتشير المراسلة إلى أن هذه الخطوة تسمح لشركة روزاتوم الروسية بالتعاون مع طهران في مفاعل تخصيب اليورانيوم في منطقة فوردو، والشركة الوطنية الصينية للطاقة النووية في مفاعل أراك لمعالجة الماء الثقيل.
وتضيف مرتضوي ان الجمهوريين لينزي غراهام وتيد كروز انتقدا قرار ترامب وحذرا من أنه سيسمح لإيران باستكمال بناء برنامجها.
الغارديان نشرت تقريرا لمراسلها للشؤون الدولية بيتر بومونت بعنوان "قتلى الحرب في اليمن يزيدون على 100 ألف قتيل".
يقول بومونت إنه "تبعا للإحصاءات التي كشف عنها مركز معولمات الصراعات المسلحة الذي يحظى بثقة كبيرة على المستوى العلمي فإن عدد القتلى في الحرب في اليمن التي بدأت عام 2015 قد وصل إلى 100 ألف قتيل".
ويشير بومونت إلى أن المركز يتتبع حالات القتل المؤكدة في الصراع الجاري في اليمن ويحظى بثقة كبيرة، وأعلن في أحدث تقرير له أن بين القتلى 12 ألف مدني سقطوا خلال عمليات استهداف مباشرة.
ويضيف بومونت أن التقرير كشف عن أن عدد القتلى خلال العام الجاري وصل إلى 20 ألف قتيل ما يجعله ثاني أسوأ أعوام الحرب في اليمن بعد العام 2018.
ويقول بومونت إن "في مارس عام 2015 تدخلت المملكة العربية السعودية في الصراع لمحاولة منع استيلاء الحوثيين على جنوبي اليمن، وقادت تحالفا شن غارات جوية أصابت مدارس ومستشفيات وحفلات عرس بينما استخدم الحوثيون الصواريخ والطائرات المُسيرة لاستهداف مواقع سعودية".
ويوضح بومونت أن التقرير يكشف أن اكثر المحافظات تضررا هي تعز والحديدة والجوف والتي شهدت سقوط 10 آلاف قتيل في كل منطقة من بينها منذ 2015.
التايمز نشرت موضوعا ضخما بصورة لتمثال توت عنخ أمون احتلت الصفحة الأولى لملحقها الثقافي وعنونته قائلة "أدخل لو تجرأت على ذلك: الزيارة الاخيرة لتوت عنخ أمون للندن".
وفي الداخل أفردت الجريدة صفحتين متقابلتين للموضوع الذي أعدته الصحفية راتشيل كامبل لتغطية معرض تحف مقبرة توت عنخ أمون الفرعونية في قاعة ساتشي في لندن والذي يبدأ السبت ويستمر حتى الصيف المقبل.
وتستعرض الصحفية العرض الأول لمقتنيات مقبرة توت عنخ أمون في لندن عام 1972 موضحة أنها كانت في سنة التاسعة وذهبت لمشاهدة المعرض حيث كان تلاميذ المدارس من مختلف انحاء بريطانيا يقفون في طوابير طويلة لزيارته والاطلاع على المقتنيات الأثرية للملك الفرعوني الذي مات عن سن يناهز التسعة عشر عاما.
وتضيف كامبل ان المرة الثانية التي عُرضت فيها المجموعة الأثرية في لندن كانت بعد ذلك بخمس وثلاثين عاما حيث استضافة قاعة أو تو المجموعة الكاملة عام 2007 مضشيرة إلى أن الزيارة الحالية هي الأخيرة لمقتنيات مقبرة توت عنخ أمون قبل أن يتم عرضها في المتحف المصري الكبير.
وتنقل كامبل عن مدير المتحف المصري طارق العوضي قوله إن المعرض يضم 150 قطعة أثرية أصلية بينها 60 قطعة لم يتم عرضها خارج مصر من قبل.

Tuesday, September 17, 2019

स्विस बैंक खाताधारकों की फ़र्ज़ी सूची बीबीसी के नाम पर वायरल

बीबीसी के हवाले से स्विस बैंक खाताधारकों की एक फ़र्ज़ी सूची सोशल मीडिया पर शेयर की जा रही है जिसकी बीबीसी पुष्टि नहीं करता है.
सूची में दावा किया जा रहा है कि स्विस बैंक कॉर्पोरेशन ने प्रवर्तन निदेशालय और सीबीआई के लगातार दबाव बनाने के बाद स्विस बैंक में मौजूद भारतीय खाताधारकों की जानकारी भारत सरकार को सौंप दी है.
सूची में शामिल 10 लोगों में सबसे ऊपर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी का नाम आता है जिसके बाद रॉबर्ट वाड्रा, लालू प्रसाद यादव समेत पवन चामलिंग, पी चिदंबरम, सोनिया गाँधी, शशिकला नटराजन, राजीव कपूर, जय कुमार सिंह और उमेश शुक्ल का नाम है.
सूची के आख़िर में दावा किया गया है कि स्विस बैंक कॉर्पोरेशन के एक बड़े अधिकारी ने बीबीसी लंदन के एक रिपोर्टर से बात की और बताया कि 'बैंक ने सबसे बड़े 10 खाताधारकों की सूची भारत सरकार को दी है'.
बीबीसी न्यूज़ लंदन के हवाले से इस ख़बर को सोशल मीडिया पर बहुत से ग्रुप में पोस्ट किया जा रहा है.
बीबीसी ने सोशल मीडिया पर अपने नाम से जारी स्विस बैंक की इस लिस्ट वाली ख़बर का खंडन करते हुए आधिकारिक तौर पर बयान दिया है कि ''बीबीसी इस बात की पुष्टि करता हैं की यह ख़बर फ़र्ज़ी है और इसका बीबीसी से कोई लेना-देना नहीं है. हम पाठकों से आग्रह करते हैं कि वह ख़बरों को सत्यापित करने के लिए बीबीसी की न्यूज़ वेबसाइट देखें.''
बीबीसी की फ़ैक्ट चेक टीम ने जब मीडिया पर शेयर की जा रही सूची में नामित स्विस बैंक कॉर्पोरेशन को सर्च किया तो पता चला की जिस बैंक केसोशल द्वारा लिस्ट जारी करने की बात कही जा रही है वह बैंक साल 1998 में ही ख़त्म कर दिया गया था.
इंटरनेट पर मौजूद जानकारी के अनुसार स्विस बैंक कॉर्पोरेशन को स्विट्ज़रलैंड में साल 1872 में स्थापित किया गया था.
स्विस बैंक कॉर्पोरेशन एक स्विस इन्वेस्टमेंट बैंक और फाइनेंसियल सर्विसेज प्रदान करने वाली एक कंपनी थी जिसे साल 1998 में ख़त्म कर उसका विलय यूनियन बैंक ऑफ़ स्विट्ज़रलैंड में कर दिया गया था.
सोशल मीडिया पर जारी बीबीसी के हवाले से स्विस बैंक की मौजूदा लिस्ट ऐसा पहला मौक़ा नहीं है जब बीबीसी के नाम पर इस तरह की फ़ेक न्यूज़ वायरल हो रही है.
इससे पहले लोकसभा चुनावों के दौरान भी ऐसी झूठी ख़बरें प्रसारित हो चुकी है.
देश की 17वी लोकसभा के लिए हुए आम चुनावों के दौरान भी बीबीसी के नाम से फ़र्ज़ी चुनावी सर्वे की एक लिस्ट सोशल मीडिया पर ख़ूब शेयर की गयी थी.
इस फ़ेक न्यूज़ में दावा किया गया था कि बीबीसी, सीआईए और आईएसआई के सर्वे के मुताबिक़ लोकसभा चुनाव 2019 में बीजेपी की जीत मिलने जा रही है.
''लेकिन बीबीसी ने तब सर्वे को लेकर स्पष्ट किया था कि वह चुनावों को लेकर किसी तरह का सर्वे नहीं करती है.''

Thursday, August 22, 2019

اطلقت جمعية مالي غير الحكومية من أجل حريات الفرد حملة من أجل القضاء على اختبار العذرية في أواخر 2018.

أما جمانة التي عاشت معظم حياتها في حلب، وهي من منطقة الباب، فتقول لبي بي سي، إنها انتظرت 20 عاماً لتحصل على الطلاق.
تعيش جمانة حالياً في بروكسل منذ عام 2016، وتقول: "كنت في التاسعة عشرة من عمري عندما قرر والدي تزويجي بابن عمي دون موافقتي، لم أكن أرغب به، كنت أعشق الدراسة، لكنهم أقنعوني أنه الشخص المناسب لي، وإنني سأتعود وأحبه لاحقاً".
وجرت العادة عند الكثير من العائلات المحافظة والمناطق الريفية، أن ينتظر بعض كبار العائلة، رجالاً ونساءً في منزل العروسين ريثما يتم التأكد من "عذرية الفتاة" في ليلة الزفاف.
وتصف جمانة بنبرة لا تخلو من الألم ما وقع في تلك الليلة وكأنه حدث للتو قائلةً: "أغلق الباب علينا وطُلب منا أن نسرع لأن كبار العائلة بانتظار الخبر اليقين".
"كان الأمر سيئاً للغاية، لم يتحدث معي زوجي، بل سارع إلى إنهاء المهمة دون إجراء أي حديث معي ولو لدقائق، في حين كنت أرتجف خوفاً ولا رغبة به" بحسب وصفها.
وتضيف: "لكن حدثت المفاجئة، رغم ألمي النفسي والجسدي، لم يكن زوجي مبالياً إلا بانتظار بقعة الدم".
"لم أنزف في تلك الليلة، فما كان عليه إلا أن يكسر هدوء الليل بصوته العالي ويصرخ "لا يوجد دم"، مع إطلاقه لكلمات وألفاظ أخجل من قولها، كانت عيناه المحمرتان كجمرتين باستطاعتهما حرقي في تلك اللحظة".
أصيبت جمانة بخرس مؤقت دام لمدة ساعة من صدمتها وخوفها ولم تستطع النطق، اقتيدت إلى الطبيب النسائي في نفس الليلة ولم ينتظروا حتى الصباح للتأكد من "عذريتها" .
وتقول جمانة: "أتذكر الطبيب الذي بدأ بمواساتي كما لو أنه أبي، ووبخ زوجي بعبارات قاسية على ما فعله بها".
عاشت بعد ذلك جمانة مكرهة مع زوجها الذي شهّر بها، لأن عائلتها وكل من حولها لم يدعموها أو يؤيدوها على فكرة الانفصال، لا في تلك الليلة ولا على مر 20 عاماً من المشاكل بينهما.
لم تنسَ جمانة الإهانة أبداً، رغم مرور 20 عاماً، ورغم إنجابها لأربعة أولاد، إلا أنها انفصلت عنه حالما وصلت إلى بروكسل مع أولادها "انتقاماً منه ومن المجتمع" الذي لم يساندها بحسب تعبيرها.
وتعيش جمانة مع أولادها في بروكسل، ولا تنوي الزواج مرة أخرى، بل تسعى إلى تحقيق حلم الدراسة التي انحرمت منه، ورعاية أولادها وبناتها بطريقة تختلف عما تربت هي عليها.
وتضيف: "أنا سعيدة الآن لأنني استطعت أن أجلب ابنتَي إلى هنا، ولن يتكرر ما حدث معي، معهما أيضاً، لم أطلق زوجي فقط، بل طلقت ذلك المجتمع الذي لم ينصفني أبداً".
تقول روزانا التي انفصلت عن خطيبها بعد ارتباط دام خمس سنوات: "وثقت به وأحببته كثيراً، وفي إحدى لقاءاتنا، ألح علي وأقنعني بممارسة الجنس كوني بمثابة الزوجة، فوافقته على ذلك في أحد الأيام وفعلتها".
ولكن وبعد ستة أشهر من ذلك، حدثت خلافات عائلية حادة بين أهلها وأهل خطيبها، "كانت الكارثة بأن انفصلا عن بعضهما البعض".
وتضيف روزانا: "عقوبة فقدان العذرية لا تحتاج إلى نقاش في مجتمعنا، إنها القتل، ولحسن حظي ساعدتني صديقتي ونصحتني بغشاء صيني الصنع عند طبيبة تقوم بهذه العمليات بسرية تامة، ولولا تلك العملية الصغيرة، لكنت في عداد الأموات منذ سنوات".
أما أمينة، وهي من عائلة محافظة وفقيرة مادياً، حدث لها وسقطت في الحمام على عتبة الباب، ونزفت قليلاً في ذلك الوقت، إلا أنها لم تفهم ما وقع لها، وأخبرت والدتها عن الأمر، التي سارعت بدورها إلى أخذها لطبيب نسائي لفحصها، وعلمت أنها فقدت غشاءها بحسب قولها.
وتقول: "كان يوماً مروعاً بالنسبة لوالدتي، لم تعرف ماذا تتصرف، اجتمعت خالاتي الثلاث، ورتبوا لي موعداً لإجراء عملية إعادة رتق الغشاء بسرية تامة، لأن مثل تلك العمليات كانت ممنوعة في بلدنا، كما أن معظم الناس لم يكونوا ليصدقوا بأنني تعرضت لحادث، بل كانوا سيشككون في عذريتي ما حييت".

Friday, July 5, 2019

क्या ख़तरनाक है आपके लिए आधार कार्ड?

"मेरी उंगलियों और आंखों की पुतलियों पर किसी और का हक़ नहीं हो सकता. इसे सरकार मुझे मेरे शरीर से अलग नहीं कर सकती." आधार कार्ड पर सुप्रीम कोर्ट में एक वक़ील ने अपनी दलील में यह कहा था.
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में आधार का बचाव करते हुए भारत सरकार के तत्कालीन अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने कहा था कि किसी भी व्यक्ति का अपने शरीर पर मुकम्मल अधिकार नहीं है.
उन्होंने कहा, ''आपको अपने शरीर पर पूरा अधिकार है, लेकिन सरकार आपको अपने अंगों को बेचने से रोक सकती है. मतलब स्टेट आपके शरीर पर नियंत्रण की कोशिश कर सकता है.'' इस व्यापक बायोमेट्रिक डेटाबेस संग्रह को लेकर निजता और सुरक्षा के लिहाज से चिंता जताई जा रही है.
श्याम दीवान एक अहम याचिका के दौरान बहस कर रहे थे, जिसमें एक नए क़ानून को चुनौती दी गई है. इस क़ानून के मुताबिक आम लोगों को अपना इनकम टैक्स रिटर्न दाख़िल करने के लिए आधार को ज़रूरी बनाया गया है.
आधार आम लोगों की पहचान संख्या है जिसके लिए सरकार लोगों की बायोमेट्रिक पहचान जुटा रही है. आम लोगों की बायोमेट्रिक पहचान से जुड़ी जानकारी के डेटाबेस की सुरक्षा और आम लोगों की निजता भंग होने के ख़तरे को लेकर चिंताएं जताई जा रही हैं.
सरकार के मुताबिक पहचान नंबर को इनकम टैक्स रिटर्न्स से जोड़ने की ज़रूरत, व्यवस्था को बेहतर ढंग से लागू करने और धोखाधड़ी को रोकने के लिए है.
वैसे भारत का बायोमेट्रिक डेटाबेस, दुनिया का सबसे बड़ा डेटाबेस है. बीते आठ साल में सरकार एक अरब से ज़्यादा लोगों की उंगलियों के निशान और आंखों की पुतलियों के निशान जुटा चुकी है.
भारत की 90 फ़ीसदी आबादी की पहचान, अति सुरक्षित डेटा सेंटरों में संग्रहित है. इस पहचान के बदले में आम लोगों को एक ख़ास 12 अंकों की पहचान संख्या दी गई है.
1.2 अरब लोगों के देश में केवल 6.5 करोड़ लोगों के पास पासपोर्ट हों और 20 करोड़ लोगों के पास ड्राइविंग लाइसेंस हों, ऐसे में आधार उन करोड़ों लोग के लिए राहत लेकर आया है जो सालों से एक पहचान कार्ड चाहते थे.
सरकार इस आधार संख्या के सहारे लोगों को पेंशन, स्कॉलरशिप, मनरेगा के तहत किए काम का भुगतान और उज्जवला गैस स्कीम और ग़रीबों को सस्ता राशन मुहैया करा रही है.
बीते कुछ सालों के दौरान आधार संख्या का दबदबा इतना बढ़ा है कि इसने लोगों के जीवन को प्रभावित करना शुरू कर दिया है.
समाजविज्ञानी प्रताप भानु मेहता आधार के बारे में कहते हैं, "यह आम नागरिकों को सशक्त बनाने के औजार के बदले अब सरकार द्वारा लोगों की निगरानी करने का हथियार बन चुका है."
देश भर में चलाई जा रही 1200 जन कल्याण योजनाओं में 500 से ज़्यादा योजनाओं के लिए अब आधार की ज़रूरत पड़ेगी. यहां तक कि बैंक और प्राइवेट फर्म भी अपने ग्राहकों के सत्यापन के लिए आधार का इस्तेमाल करने लगे हैं.
लोग इस आधार नंबर के ज़रिए अपनी शादी का रजिस्ट्रेशन करा रहे हैं.
मीडियानामा न्यूज़ वेबसाइट के संपादक और प्रकाशक निखिल पाहवा कहते हैं, "इसे ज़बरन मोबाइल फ़ोन, बैंक ख़ाते, टैक्स फ़ाइलिंग, स्कॉलरशिप, पेंशन, राशन, स्कूल एडमिशन और स्वास्थ्य संबंधी आंकड़े या फिर और भी बहुत कुछ से जोड़ने की कोशिश से लोगों की निजी जानकारियों के लीक होने का ख़तरा बढ़ेगा."
ऐसी आशंकाएं निराधार नहीं हैं. हालांकि सरकार ये भरोसा दे रही है कि बायोमेट्रिक डेटा बेहद सुरक्षित ढंग से इनक्रिप्टेड रूप में संग्रहित है. सरकार ये भी कह रही है कि डेटा लीक करने के मामले में जो भी दोषी पाए जाएंगे उन पर ज़ुर्माना लगाया जा सकता है, जेल भेजा जाएगा.

Tuesday, July 2, 2019

联合国粮农组织在重要关口迎来首位中国籍干事

英国政策研究机构查塔姆研究所杰出访问学者蒂姆·伯顿表示,如果我们想要保卫自身健康和自然环境,就必须抓紧时间改变现有的粮食生产与消费模式

粮农系统的温室气体排放占全球排放总量的三分之一。我们只剩下12年的时间采取行动避免灾难性的气候变化。为此,联合国粮农组织代表汇聚罗马,委任了一名引领全球粮食政策走向健康和可持续的新任总干事。

北京时间6月23日,联合国粮农组织各成员国以一国一票的方式进行无记名投票,中国候选人屈冬玉获得超过半数投票,打败法国籍候选人凯瑟琳·卡特琳以及格鲁吉亚籍候选人大卫·基尔瓦利泽,当选该组织首位中国籍干事,首次任期四年

“让我们携手共建一个更加充满活力的粮农组织,为了建设一个更好的世界,朝着实现联合国2030年可持续发展议程而努力,”屈冬玉在当选后的首次讲话中说到。

联合国粮食与农业组织(FAO)于1945年在加拿大魁北克省成立,初始成员国42个,现有成员国192个。根据机其宪章,联合国粮农组织的宗旨是确保“人类免受饥饿困扰”。

如今,联合国粮农组织的主要工作是减缓粮食生产对气候造成的影响以及确保粮食生产系统适应不可预测的气候条件。

历史的十字路口

本次联合国粮农组织大会为期一周。而大型工业化农业和本地自产自销的小型农业两种截然不同的农业发展模式在本次大会上激烈碰撞。

伯顿表示“全球粮食系统正站在十字路口”。

他补充道,目前这种追求大量廉价高卡路里淀粉类作物的粮食系统如果不进行大刀阔斧的改变,我们将会继续对整个地球乃至人类造成破坏。

在现在这个关键历史时期,联合国粮农组织为这场全球粮食辩论定下了基调。伯顿表示,即将离任的粮农组织总干事若泽·格拉齐亚诺·达席尔瓦来自巴西,他将营养与可持续性定位为全球粮食发展愿景的核心思想,其继任者能够秉承这个原则将十分重要

巴西盖图罗·瓦格斯基金会农业企业研究中心协调员罗伯托·罗格里格斯表示,经济保护主义和中美贸易战都为粮农组织这种以粮食安全为导向的多边组织设置了一个颇具挑战的运作背景。

他说,“贸易战关系到每个人,而且会产生危险的中期经济后果

政治还是政策?

屈冬玉于2011年开始担任中国宁夏回族自治区副主席,并就此开始了他的政治生涯。

他拥有荷兰瓦赫宁根大学遗传育种学博士学位,曾在贵州省负责一项扶贫项目,解决了当地的土豆脱毒问题。

据报道,屈冬玉得到了不少拉美国家的支持,其中最引人瞩目的还是巴西。在如今紧张的中美贸易局势之下,巴西正日渐成为中国重要的农产品合作伙伴

罗格里格斯表示,这主要是因为中巴两国近年来的贸易合作更加紧密,而且双方经济在本质上具有互补性。

伯顿表示,中国“一带一路”倡议投入的大规模投资为屈冬玉参选成功地赢得了发展中国家的支持。

伯顿说,屈冬玉对美国的大农业模式和通过生物技术创新提升作物产量的前景并不看好,而另外一位候选人卡特琳似乎却对其持更为支持的态度。她曾表示如果当选,可能会力推改变目前欧盟对转基因农产品和农业化学品的限制政策

墨西哥国立自治大学(UNAM)农业经济学家尤兰达·特阿帕伽表示,美国支持的大农业模式从环境和经济角度来说都存在根本性缺陷。

她表示,自然是有限的,而我们对廉价食物的追求正在摧毁土壤肥力和海洋的生物多样性,而海洋面临的问题可能比陆地更严重

农业必须依靠健康的土壤环境和可靠的水循环系统。但是,人们却将其看作与其他行业并无二致的社会经济分支。

特阿帕伽表示,“工业化生产从能源与自然运转规律的角度来说是最大骗局”。她指出,那些包括肥料和燃油机械在内的必要投入以谷物形式产生的能量远低于对其投入的能量

她表示,由于农作物——以及利润主要取决于不可预测的天气模式,所以国际资本也无法应对农业投资带来的高风险。

“这就像投资了一个没有屋顶的床垫工厂,一旦下雨你就会失去一切。”

全球约70%的粮食是由家庭农场生产的,而这些家庭农场却往往承担着负担。特阿帕伽表示,家庭农场和渔业公司只有靠补贴和配额才能维持生存。

罗格里格斯曾在2003年到2006年担任巴西农业部长,他承认农业活动存在高风险,并批评补贴政策扰乱了市场秩序。

他告诉“中拉对话,“当富裕国家干预贸易和价格时,没有补贴的发展中国家生产者就会失去市场份额。”

相反,罗格里格斯更倾向于采用农村保险计划,因为这样可以保护生产者免于遭受气候相关损失。他说,这些计划与其说是农业政策,不如说是为城市人口提供的粮食安全政策。

联合国粮农组织称,美国、加拿大和阿根廷等国目前的粮食自给率已经达到120%。而产量过剩带来的常常浪费,并导致生产者遭受经济损失。

伯顿说,这些国家支持的工业化生产模式创造了一个气候“恶性循环”。

只种少数几种易于运输的作物能够降低消费者的花销成本 。这些谷物都还可以用来喂养能够产生大量甲烷的牲畜,而饲养牲畜就要大规模砍伐森林,从而加速气候变化,进而影响粮食产量和“营养素密度”。

从工业化生产到小规模粮食系统

工业化粮食生产导致了一种极不正常的现象,大约8.2亿人缺乏基本的食物,而以加工谷物和添加糖为主的膳食结构却让超过20亿人变得肥胖

近日,有关健康、饮食和可持续食物系统的《EAT-柳叶刀报告》发布。而上述现象也是该报告的主要发现之一。报告建议,我们应该将现有的坚果、水果、蔬菜和豆类消费量都增加一倍。

伯顿说,此前我们对抗饥饿的多方努力侧重的都是卡路里摄入,而不是营养的摄入。

特阿帕伽对现有的单一种植和作物专一化提出了警告,认为殖民文化到来之前,拉丁美洲的饮食结构丰富,完全能够满足当地居民日常需求

她突出强调了中美洲传统农业模式 ,也就是在一个地方同时种植多种食物。不同作物间作能够消除土壤风蚀和病虫害蔓延的风险。

特阿帕伽表示:“这样做产量肯定不及专一化的生产体系,但是却能获得积极的回报。这相当于创造了一个天然屏障,保护作物免受虫害破坏。单一种植玉米的情况下,一旦感染了病虫害,整片地都会遭殃,但如果间作了其他作物,虫害的蔓延就会被控制住。”

而且这种传统模式也不需要化肥,因为豆类和鹰嘴豆等作物能够增加土壤中氮等营养物质的含量,从而自然而然地增加土壤的肥力。

国际环境与发展研究所(IIED)非正式粮食系统研究员亚历杭德罗·瓜林表示,联合国粮农组织大会提供了一个机会,让我们重视和支持地方小型农业生产,这种生产模式主要依靠的是家庭(特别是妇女)的劳作,能够给贫困人口带来更多好处

他说,这一农业系统被粮农组织忽视了太长时间

“粮农组织需要与那些真正参与贫困人口粮食系统工作、并从中获益的人合作,必须将他们看成是我们在提高粮食系统的公平性和可持续性过程中的重要盟友。”

罗格里格斯同样认为我们需要更营养、更健康的食物,但是他也指出,在经济全球化的环境中,只有比其他国家通过可持续的方式生产的产品价格更低,本地生产才有意义。

粮农组织负责人可以连续两届连任。这样一来,下一任粮农组织负责人的任期将有可能持续到2030年,而这也是实现联合国可持续发展目标的最后期限

Tuesday, June 25, 2019

#Emergency: जब इंदिरा गांधी ने दिया भारत को शॉक ट्रीटमेंट

25 जून 1975 की सुबह पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय के फ़ोन की घंटी बजी. उस समय वह दिल्ली में ही बंग भवन के अपने कमरे में अपने बिस्तर पर लेटे हुए थे.
दूसरे छोर पर इंदिरा गांधी के विशेष सहायक आरके धवन थे जो उन्हे प्रधानमंत्री निवास पर तलब कर रहे थे. जब राय 1 सफ़दरजंग रोड पहुँचे तो इंदिरा गांधी अपनी स्टडी में बड़ी मेज़ के सामने बैठी हुई थीं जिस पर ख़ुफ़िया रिपोर्टों का ढ़ेर लगा हुआ था.
अगले दो घंटों तक वो देश की स्थिति पर बात करते रहे. इंदिरा का कहना था कि पूरे देश में अव्यवस्था फैल रही है. गुजरात और बिहार की विधानसभाएं भंग की जा चुकी हैं. इस तरह तो विपक्ष की मांगों का कोई अंत ही नहीं होगा. हमें कड़े फ़ैसले लेने की ज़रूरत है.
इंदिरा ने ये भी कहा कि वो अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की हेट लिस्ट में सबसे ऊपर हैं और उन्हें डर है कि कहीं उनकी सरकार का भी सीआईए की मदद से चिली के राष्ट्रपति सालवडोर अयेंदे की तरह तख़्ता न पलट दिया जाए.
बाद में एक इंटरव्यू में भी इंदिरा ने स्वीकार किया किया कि भारत को एक 'शॉक ट्रीटमेंट' की ज़रूरत थी. इंदिरा ने सिद्धार्थ को इसलिए बुलाया था क्योंकि वह संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ माने जाते थे.
मज़े की बात ये थी कि उन्होंने तब तक अपने कानून मंत्री एचआर गोखले से इस बारे में कोई सलाह मशविरा नहीं किया था. राय ने कहा कि मुझे वापस जाकर संवैधानिक स्थिति को समझने दीजिए. इंदिरा राज़ी हो गईं लेकिन यह भी कहा कि आप 'जल्द से जल्द' वापस आइए.
राय ने वापस आकर न सिर्फ़ भारतीय बल्कि अमरीकी संविधान के संबद्ध हिस्सों पर नज़र डाली. वो दोपहर बाद तीन बज कर तीस मिनट पर दोबारा 1 सफ़दरजंग रोड पहुँचे और इंदिरा को बताया कि वो आंतरिक गड़बड़ियों से निपटने के लिए धारा 352 के तहत आपातकाल की घोषणा कर सकतीं हैं.
इंदिरा ने राय से कहा कि वो आपातकाल लगाने से पहले मंत्रिमंडल के सामने इस मामले को नहीं लाना चाहतीं. इस पर राय ने उन्हें सलाह दी कि वो राष्ट्रपति से कह सकतीं हैं कि मंत्रिमंडल की बैठक बुलाने के लिए पर्याप्त समय नहीं था.
इंदिरा ने सिद्धार्थ शंकर राय से कहा कि वो इस प्रस्ताव के साथ राष्ट्रपति के पास जाएं. कैथरीन फ़्रैंक अपनी किताब इंदिरा में लिखती हैं कि इसका राय ने ये कह कर विरोध किया कि वो पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री हैं, प्रधानमंत्री नहीं.
हाँ उन्होंने ये पेशकश ज़रूर कर दी कि वो उनके साथ राष्ट्रपति भवन चल सकते हैं. ये दोनों शाम साढ़े पांच बजे वहाँ पहुंचे. सारी बात फ़ख़रुद्दीन अली अहमद को समझाई गई. उन्होंने इंदिरा से कहा कि आप इमरजेंसी के कागज़ भिजवाइए.
जब राय और इंदिरा वापस 1 सफ़दरजंग रोड पहुँचे तब तक अंधेरा घिर आया था. राय ने इंदिरा के सचिव पीएन धर को ब्रीफ़ किया. धर ने अपने टाइपिस्ट को बुला कर आपातकाल की घोषणा के प्रस्ताव को डिक्टेट कराया. सारे कागज़ों के साथ आर के धवन राष्ट्रपति भवन पहुँचे.
इंदिरा ने निर्देश दिए कि मंत्रिमंडल के सभी सदस्यों को अगली सुबह 5 बजे फ़ोन कर बताया जाए कि सुबह 6 बजे कैबिनेट की बैठक बुलाई गई है. जब तक आधी रात होने को आ चुकी थी लेकिन सिद्धार्थ शंकर राय अभी भी 1 सफ़दरजंग रोड पर मौजूद थे. वो इंदिरा के साथ उस भाषण को अंतिम रूप दे रहे थे जिसे इंदिरा अगले दिन मंत्रिमंडल की बैठक के बाद रेडियो पर देश के लिए देने वाली थीं.
बीच बीच में संजय उस कमरे में आ जा रहे थे. एक दो बार उन्होंने 10-15 मिनटों के लिए इंदिरा गांधी को कमरे से बाहर भी बुलाया. उधर आर के धवन के कमरे में संजय गांधी और ओम मेहता उन लोगों की लिस्ट बना रहे थे जिन्हें गिरफ़्तार किया जाना था. उस लिस्ट के अनुमोदन के लिए इंदिरा को बार बार कमरे से बाहर बुलाया जा रहा था.
ये तीनों लोग इस बात की भी योजना बना रहे थे कि अगले दिन कैसे समाचारपत्रों की बिजली काट कर सेंसर शिप लागू की जाएगी. जब तक इंदिरा ने अपने भाषण को अंतिम रूप दिया सुबह के तीन बज चुके थे.
राय ने इंदिरा से विदा ली लेकिन गेट तक पहुंचते पहुंचते वो ओम मेहता से टकरा गए. उन्होंने उन्हें बताया कि अगले दिन अख़बारों की बिजली काटने और अदालतों को बंद रखने की योजना बना ली गई है.
राय ने तुरंत इसका विरोध किया और कहा, "ये बेतुका फ़ैसला है. हमने इसके बारे में तो बात नहीं की थी. आप इसे इस तरह से लागू नहीं कर सकते."
राय वापस मुड़े और धवन के पास जा कर बोले कि वो इंदिरा से फिर मिलना चाहते हैं. धवन ने कहा कि वो सोने जा चुकीं हैं. राय ने ज़ोर दिया,'मेरा उनसे मिलना ज़रूरी है.'
बहुत झिझकते हुए धवन इंदिरा गांधी के पास गए और उन्हें ले कर बाहर आए. राय ने कैथरीन फ़्रैंक को बताया कि जब उन्होंने इंदिरा को बिजली काटने वाली बात बताई तो उनके होश उड़ गए.
उन्होंने राय से इंतज़ार करने के लिए कहा और कमरे से बाहर चली गईं. इस बीच धवन के दफ़्तर से संजय ने बंसी लाल को फ़ोन किया कि राय बिजली काटने की योजना का विरोध कर रहे हैं.
बंसी लाल ने जवाब दिया, "राय को निकाल बाहर करिए... वो खेल बिगाड़ रहे हैं. वो अपने आपको बहुत बड़ा वकील समझते हैं लेकिन उन्हें कुछ आता जाता नहीं."(जग्गा कपूर, वाट प्राइस पर्जरी: फ़ैक्ट्स ऑफ़ शाह कमीशन)
जब राय इंदिरा का इंतज़ार कर रहे थे तो ओम मेहता ने उन्हें बताया कि इंदिरा सेंसरशिप तो चाहती हैं लेकिन अख़बारों की बिजली काटने और अदालतें बंद करने का आइडिया संजय का है.
जब इंदिरा वापस लौटीं तो उनकी आंखें लाल थीं. उन्होंने राय से कहा, "सिद्धार्थ बिजली रहेगी और अदालतें भी खुलेंगीं." राय इस ख़ुशफ़हमी में वापस लौटे कि सब कुछ ठीक हो गया है.

Monday, June 10, 2019

لِمَ ظلت إحدى أضخم كنائس أوروبا نحو 137 عاما غير مكتملة ومن دون تصريح بناء؟

أصدرت برشلونة أخيرا تصريح إجازة بناء لأحد أشهر مزاراتها السياحية بعد 137 سنة من بنائه.
ومُنحت كنيسة ساغرادا فاميليا " العائلة المقدسة"، التي تعد من أضخم الكنائس في أوروبا، الجمعة الماضية تصريحا لاستكمال أعمال البناء حتى عام 2026.
ولا يتضح السبب وراء عدم حصول الكنيسة العتيقة ذات التصميم المميز، الذي يعود للمعماري الإسباني الشهير أنطوني غاودي، على تصريح بناء منذ تأسيسها.
ووافقت الكنيسة، المسجلة كموقع من مواقع التراث الإنساني لدى منظمة اليونسكو، العام الماضي على سداد غرامة بقيمة 41 مليون دولار للسلطات المحلية لمدينة برشلونة.
ومن المأمول أن تكفي السنوات السبعة التي يمتد إليها تصريح البناء لاستكمال أعمال البناء، وهي الفترة التي تتزامن مع إحياء الذكرى المئة لوفاة مصممها الإسباني غاودي في 2026.
وقالت جانيت سانز، نائبة عمدة برشلونة لشؤون التخطيط العمراني، إن الاتفاقية تضع حدا "للغرابة التاريخية في مدينتنا".
و تعد ساغرادا فاميليا من أكثر الأماكن جاذبية للسياح في برشلونة، إذ يزورها حوالي 4.5 مليون زائر سنويا علاوة على 20 مليون شخص يأتون لمشاهدتها من الخارج والتجول في المنطقة المحيطة بها.
ومن المقرر أن تعتمد المرحلة النهائية من البناء على التصميم المعماري الذي أنتجه غاودي والذي يعتمد على استخدام الجص، وذلك من خلال نسخ من التصميم الأصلي التي ضاعت أصولها جراء حريق شب في الكنيسة في الثلاثينيات من القرن العشرين.
أصدر مكتب النائب العام في أفغانستان مذكرة اعتقال بحق الرئيس السابق لاتحاد كرة القدم الأفغاني غداة إيقافه عن العمل من قبل الاتحاد الدولي على خلفية اتهامات بالتحرش الجنسي.
واتهمت 5 لاعبات أفغانيات على الأقل كرم الدين كريم بالتحرش بهن في الفترة ما بين عامي 2013 و2018 وهي الاتهامات التي ينفيها الرئيس السابق للاتحاد الأفغاني.
وكان الاتحاد الدولي لكرة القدم "فيفا"، حظر كريم، من ممارسة العمل في الحقل الرياضي مدى الحياة بعد إدانته بـ "التحرش الجنسي" على لاعبات في المنتخب الأفغاني الوطني للسيدات.
وغُرٍّم كريم مليون فرنك سويسري (794,849 جنيهًا إسترلينيًا) بعد تحقيق أجراه الاتحاد الدولي لكرة القدم.
وأدانت لجنة أخلاق مستقلة كريم "بإساءة استخدام منصبه" وقالت أنه مذنب.
وكان كريم أوقف عن ممارسة مهام منصبه في ديسمبر / كانون الأول، بقرار من مكتب المدعي العام الأفغاني عقب دعاوى قدمتها لاعبات أفغانيات سابقات والمدربة الأمريكية السابق للفريق الأفغاني، كيلي ليندسي.
ووصف الاتحاد الأفغاني لكرة القدم الدعاوى في حينه، بأنها "لا أساس لها من الصحة".
لكن الاتحاد أكد في منشور على موقع فيسبوك يوم السبت، خبر إدانة وحظر كريم.
استمرت الصحف البريطانية الصادرة صباح الإثنين في نسخها الورقية والرقمية في إبراز الملف السوداني بشكل كبير بعد فض الاعتصام أمام مقر القيادة العامة للجيش في العاصمة الخرطوم، كما تناولت ملف الانتخابات الإسرائيلية القادمة ودور الأحزاب اليهودية المتشددة فيها علاوة على ملف العقوبات الدولية على إيران وانعكاسها على سباق التسلح في المنطقة العربية.
الغارديان نشرت تقريرا ضمن سلسلة مطولة من المقالات على مدار الأسابيع الماضية لمراسلتها في الخرطوم زينب محمد صالح، وجيسون بيرك بعنوان "ملايين ينضمون للإضراب العام الساعي لإزاحة الجيش في السودان".
يقول التقرير إن ملايين السودانيين انضموا إلى الإضراب العام الشامل الذي دعى إليه تجمع المهنيين السودانيين وقاموا بإغلاق الشوارع الرئيسية في المدن المختلفة رغم تزامن ذلك مع حملة اعتقالات وتحرشات موسعة من قبل الجيش.
ويشير التقرير إلى أن الإضراب بدأ بالتزامن مع بداية العمل يوم الأحد أول الأسبوع في البلاد ويسعى منظموه إلى استخدامه في إعادة إطلاق حركة المعارضة والمظاهرات التي تلقت ضربة كبيرة بالحملة التي وصفت بالوحشية لفض الاعتصام والوصول إلى مرحلة إجبار قادة الجيش على الاستقالة.
ويوضح التقرير أنه بعد الإطاحة بالرئيس السابق عمر البشير رفض المجلس العسكري الدعوات بالإسراع بنقل السلطة للمدنيين وبدلا عن ذلك سعي لفترة انتقالية كبيرة يتقاسم فيها السلطة مع المدنيين لكن حتى كل محاولات التفاوض حول تشكيل الحكومة الانتقالية باءت بالفشل.
ويقول التقرير إن قادة المجلس العسكري تعرضوا لانتقادات دولية واسعة بعد عملية فض الاعتصام الأسبوع الماضي وتراجعت السعودية والإمارات عن موقفهما السابق المؤيد بشكل غير مشروط للمجلس العسكري السوداني بعد اتصالات أجراها مسؤولون في الإدارة الأمريكية مع قادة الدولتين.
الإندبندنت نشرت مقالا لمراسلتها في القدس بل ترو تعلق فيه على دور الأحزاب اليهودية المتشددة في الانتخابات البرلمانية المقبلة في إسرائيل بعنوان "هل تصبح الأحزاب الأرثوذكسية المتشددة في إسرائيل هي صانعة الملوك الجديدة؟"
وترى ترو أن الصراع الذي سيسيطر على ساحة الانتخابات القادمة في البلاد سيكون هو الصراع بين الأحزاب العلمانية المتطرفة من جهة والأحزاب الأرثوذكسية المتشددة "الحريديم" من جهة أخرى وبذلك سيحل هذا الجانب من المنافسة الحزبية قبيل الانتخابات محل الملفات الموضوعية التي سيطرت على الصراع بين المتنافسين في الانتخابات الماضية وكان على رأسها الموقف من شن حرب شاملة على قطاع غزة.
وتوضح ترو أن الصراع بين الأرثوذكس والعلمانيين أصبح يحتل موقع الصدارة في الجلسات السياسية والاجتماعية في البلاد ليس فقط لإنه سيحدد هوية الحكومة المقبلة ولكن لأنه تسبب في أن تشهد إسرائيل انتخابات عامة للمرة الثانية خلال أسابيع قليلة وهو الأمر الذي يحدث لأول مرة في تاريخ البلاد.
وتشير ترو إلى أن رئيس الوزراء السابق بنيامين نتنياهو فشل في بناء حكومة ائتلافية بالتحالف مع الأحزاب اليمينية المتشددة "بعدما تسبب وزير دفاعه المثير للمشاكل" أفيغدور ليبرمان في إغضاب الحريديم برفضه الموافقة على ضمان استمرار وضعهم الحالي الذي يسمح لهم بعدم الانضمام للخدمة العسكرية.
الديلي تليغراف نشرت تقريرا عن ملف التسلح الإيراني بعنوان "إيران تكشف نظاما جديدا للدفاع الصاروخي في الوقت الذي تحث فيه الأوروبيين على تطبيع العلاقات".
يقول التقرير إن النظام الصاروخي الجديد تم تطويره محليا بشكل كامل وكشفت عنه طهران النقاب في الوقت الذي طالبت فيه الدول الأوروبية بالالتزام بواجباتها بمقتضى الاتفاق النووي أو مواجهة العواقب.
ويوضح التقرير أن النظام الدفاعي الجديد واسمه خورداد 15 يمكنه تتبع ستة أهداف متفرقة في وقت واحد من قائمة موسعة من الأهداف المحتملة بينها الطائرات المسيرة و قاذفات القنابل والمقاتلات والصواريخ الموجهة وبعد رصدها يقوم النظام بإطلاق صواريخ مضادة على هذه الأهداف.
وينقل التقرير عن وزير الدفاع الإيراني أمير حاتمي قوله خلال الإعلان عن النظام الجديد "إيران ستواصل تطوير قدراتها العسكرية للدفاع عن مصالحها القومية ولن نستأذن أي جهة في هذا الصدد".
ويشير التقرير إلى أنه بالرغم من أن إيران تعاني من مشاكل اقتصادية كبرى عقب الانسحاب الأمريكي من الاتفاق النووي الذي أبرم عام 2015 إلا أن طهران مصرة على استعراض قوتها العسكرية في المنطقة بالتزامن مع توتر العلاقات بينها وبين واشنطن.
ويقول التقرير أيضا أن إيران رفضت قبل أيام عرضا فرنسيا بإعادة فتح باب التفاوض بخصوص الاتفاق النووي وأكدت أن محاولة توسيع نطاق الاتفاق قد يؤدي إلى انهياره بالكامل.

Monday, May 20, 2019

شهرزاد ميرقليخان خلال اللقاء الذي أجراه معها الصحفي السجين رضا غولبور

وفي ردها عن سبب نفيها إلى عمان تحديداً، بدلاً من محاولة اعتقالها أو إنهائها كلياً على سبيل المثال، تقول: " كانت لدي تأشيرة عمل في سلطنة عمان والتي كانت ستنتهي خلال عام، كما أنهم كانوا على علم بحساباتي ورصيدي في البنك، ربما فكروا بانني سأضطر إلى مغادرة عمان إلى تركيا، ومن هناك تسهل عملية التخطيط لقتلي بعيدا عن إيران، لإبعاد الشكوك عن أنفسهم".
وتقول "لم تتدخل سلطنة عمان أو تتوسط في قضيتي، هنا في مسقط، لا يتحدثون معي حول أي شؤون سياسية، ولكن أصدقائي في الأسرة الحاكمة نصحوني بالابتعاد عن شؤون سياسية والاستمتاع بحياتي مع ابنتي التوأم".
ومن اللافت للانتباه، أن سرافراز ينتقد الحرس الثوري ويدافع عن شهرزاد في مقابلاته التلفزيونية من داخل إيران دون خوف. وكان آخر لقاء له على قناة "جام جام" الحكومية، انتقد فيها بشدة الحرس الثوري وقال عنه بأنه "يتصرف بطريقة غير منطقية ومثيرة للسخرية".
وترجّح شهرزاد، سبب عدم خشية سرافراز من الدفاع عنها وانتقاد الحرس الثوري من داخل إيران إلى علاقته القوية مع المرشد الأعلى الذي باستطاعته تغيير مجرى الأحداث بكلمة واحدة منه.
ويرى محللون أن تصريحات سرافراز ودفاعه العلني عن امرأة تهدد الحرس الثوري وشخصيات قيادية بارزة بكشف المستور، دليل على "وجود فجوة عميقة وانقسام بين أجهزة الدولة العليا".
يمكنكم تسلم إشعارات بأهم الموضوعات بعد تحميل أحدث نسخة من تطبيق بي بي سي عربي على هاتفكم المحمول.
ويتفادى الحرس الثوري ذكر اسم شهرزاد، أو الرد على اتهاماتها، بل يطالب مديرها بتقديم دلائل على أقواله.
ومن بين التهديدات التي نشرتها شهرزاد، هي "فضح مجتبى خامنئي وأعماله غير القانونية، كتجارة الأسلحة وغيرها من المعدات الذي تدر له أرباحاً هائلة، والتي يودع معظمها في مصارف المملكة المتحدة" كما تقول.
وقالت في ردها على سؤال لبي بي سي عما إذا كانت تخشى تعرضها للاغتيال أو الخطف: "لا أخشى شيئاً، ولا حتى المخابرات الإيرانية لأنني أملك الحقيقة ونشرتها، وإن حدث لي مكروه، فهم المسؤولون"، في إشارة إلى الحرس الثوري الإيراني ومجتبى خامنئي.
وأضافت: " لم يكن سجني خمس سنوات في الولايات المتحدة بالشيء الذي يُذكر مقارنة بالمتاعب النفسية الهائلة التي سببها لي رجال الحرس الثوري".
تحدثت في مقاطع الفيديو التي نشرتها، عن "كيفية استغلال زوجها السابق الذي يعمل مع الحرس الثوري"، لاسمها ومكتبها، وكيف أنه صدّر ثلاثة آلاف خوذة مزودة بمناظير ليلية، تستخدم لأغراض عسكرية، إلى الحرس الثوري من الولايات المتحدة عبر النمسا.
وتقول :"كنت ضحية الأعمال الإجرامية التي قام بها زوجي السابق محمود سيف، المقرب من الحرس الثوري ومجتبى والأشرار الذين معهم".
وأضافت:" دخل مكتبي بالقوة، لم أكن حاضرة وقتها، لكنني علمت لاحقاً أنه أرسل فاكس معاملة تصدير الخوذ من مكتبي، لأتورط أنا بهذه العملية التي سُجنت في الولايات المتحدة بسببها خمس سنوات".
وذكرت أن طليقها يحمل عدة جوازات سفر من بينها الجواز السوري، وأضافت: "علمتُ مؤخراً أنه قام بعملية تجميلية لتغيير ملامح وجهه".
كان الصحفي رضا غولبور "أحد ضحايا الحقيقة" في قضيتها، إذ تقول إن حسين طائب، القيادي المعروف في الحرس الثوري، طلب من غولبور، كتابة مقال مسيء لسمعتها، لكن الأخير رفض ذلك واشترط مقابلتها ومحاورتها وجهاً لوجه.
وكانت النتيجة أن كتب مقالاً إيجابياً عنها وانتقد فيه محمود سيف، زوجها السابق، الأمر الذي أغضب الاستخبارات الإيرانية.
وبعد فترة وجيزة من نشر اللقاء، أعتقل غولبور بتهمة "التجسس لصالح إسرائيل"، وحُكم عليه بالإعدام، وبعد الاستئناف، خُفّض الحكم إلى السجن مدة 25 عاماً.
وعلى الرغم من ذلك، لم يغير غولبور موقفه، ولا يزال يناشد كبار المسؤولين في البلاد "للإنصات إلى الحقيقة".

Monday, May 13, 2019

واشنطن ترسل مزيدا من القطع البحرية للضغط على إيران

وبحسب الدراسة، شهدت الفترة بين عامي 1961 و2010، معاناة كل الدول الـ 18 التي كانت الانبعاثات الكربونية منها تقل عن معدل 10 أطنان من ثاني أكسيد الكربون لكل فرد (9 أطنان تحديدا)، من التأثيرات السلبية الناجمة عن ارتفاع درجة حرارة الأرض، وذلك من خلال انخفاض نصيب الفرد فيها من الناتج المحلي الإجمالي بنسبة تصل في متوسطها إلى 27 في المئة مقارنة بما كان يفترض أن يكون عليه الحال، إذا لم تزد درجة الحرارة بالمعدلات السائدة في الوقت الراهن.
وعلى النقيض من ذلك، فإن 14 من الدول الـ 19 التي زادت الانبعاثات الإجمالية التراكمية منها على 300 طن من ثاني أكسيد الكربون لكل فرد (272 طنا بالتحديد) استفادت من الاحتباس الحراري، بزيادة قدرها في المتوسط 13 في المئة في نصيب الفرد من الناتج المحلي الإجمالي.
وتقول الدراسة إن الأمر لا يقتصر على عدم مشاركة الدول الفقيرة في اغتنام الفوائد الكاملة الناجمة عن استهلاك الطاقة فحسب، بل إن الكثير منها أصبحت أكثر فقرا - نسبياً - بفعل استهلاك البلدان الثرية للطاقة.
لكن نتائج هذه الدراسة واجهت بعض الانتقادات أيضا.
من بين هؤلاء، سولومون سيانغ الذي يعمل في الولايات المتحدة وتعاون من قبل مع كلا الباحثين اللذين أعدا الدراسة التي تحدثنا عنها في السطور السابقة، لكنه يختلف معهما في بعض النتائج التي خلصا إليها. فبالرغم من أنه يقول إنه لا يوجد شك في صحة ما توصلت إليه الدراسة، بشأن التأثير الذي خلّفه ارتفاع درجة حرارة الأرض على الدول الأكثر فقرا، والتي يسودها طقس أكثر حرارةً من غيرها، فإنه يشير في الوقت ذاته إلى أنه كان لهذه الظاهرة أثار محسوسة شعر بها سكان البلدان الأكثر ثراء كذلك.
ويقول: "نرى أضرارا تتكشف بشكل متأخر في الدول الثرية، وذلك إذا ما استخدمنا الطرق التي اتبعها التحليل الذي تضمنته تلك الدراسة. لذا فإذا ما نظرت في الفترة التي تعقب العام الأول الذي ظهرت فيه التأثيرات السلبية للاحتباس الحراري، فسترى أن الأضرار تظهر بعد ذلك في الدول الأكثر ثراء والتي تسودها درجات حرارة أكثر برودة، تماما كما يحدث في الدول الفقيرة ذات الطقس الأكثر دفئا وحرارة".
بالإضافة إلى ذلك، لم تقدم الدراسة صورة واضحة بما يكفي، بشأن التأثير الذي لحق بالنمو في الدول الواقعة على خطوط عرض متوسطة، مثل الولايات المتحدة والصين واليابان، وهي الدول صاحبة الاقتصادات الثلاثة الكبرى في العالم.
ويقول كامبول إن تغير المناخ لا يفيد أحدا على المدى البعيد، مُحذرا من أن استمرار هذه الظاهرة بلا انقطاع وبكامل قوتها الحالية سيجعلنا نواجه "تغيرات جامحة في المناخ".
ويقول إنه "من الضروري أن تتحرك دول العالم الأكثر تسببا في الانبعاثات الكربونية، لتقليص انبعاثاتها على وجه السرعة".
ويضيف: "يتعين على صناع السياسة التعامل مع مسألة التغير المناخي على محمل الجد بشكل أكبر بكثير مما يفعلونه حاليا، وعليهم أن يتيقنوا من أن هناك وسيلة للتحول العاجل بعيدا عن استخدام الوقود الأحفوري، وباتجاه الانتفاع بالطاقة المتجددة".
تصاعد التوتر في الخليج بعد أن أعلنت كل من السعودية والإمارات تعرض ناقلات نفط تابعة للدولتين لأعمال تخريبية أثناء وجود هذه الناقلات في المياه الأقتصادية لدولة الإمارات. وبدأ الاعلان من جانب الامارات يوم الأحد 12 مايو عن تعرض 4 سفن تابعة لها للتخريب، ثم أعلنت السعودية الأثنين 13 مايو عن استهداف ناقلتي نفط سعوديتين، الأمر الذي أدانه بشدة مجلس التعاون الخليجي، وكل من مصر والأردن. أما المتحدث باسم الخارجية الايرانية عباس موسوسي فقد وصف الاحداث في بحر عمان بأنها "مقلقة ومؤسفة" وطالب بالتحقيق فيها.
تأتي هذه التطورات في وقت تدق فيه طبول الحرب بين واشنطن وإيران، وسط ترقب في المنطقة العربية، خاصة منطقة الخليج لما قد تتركه مثل تلك الحرب، من تداعيات على المنطقة في حالة اندلاعها.
وبينما تزيد واشنطن من ضغوطها، بإرسال القطع البحرية إلى المنطقة، وتحذر من المدى الواسع لتلك الحرب، تقلل إيران من جانبها من خطورة التهديدات الأمريكية، كما يقلل من خطورتها أيضا عدة مراقبين في المنطقة.
وكانت وسائل الإعلام الإيرانية، قد نقلت عن قائد قوات الحرس الثوري الإيراني، اللواء حسين سلامي، قوله إن الولايات المتحدة لا تملك القدرة أو الجرأة، على شن حرب على إيران، وإن حاملات الطائرات الأميركية ليست محصنة، كما نقلت وكالة فارس الإيرانية للأنباء، عن عضو البرلمان الإيراني محمد علي بورمختار، قوله إن اللواء سلامي أكد أن إرسال حاملة طائرات أميركية إلى المنطقة ليس سوى حرب نفسية، تسعى أميركا من ورائها لتخويف الشعب، وبعض المسؤولين العسكريين من وقوع الحرب.
غير أن مراقبين آخرين، يرون أن اندلاع حرب بين إيران والولايات المتحدة، ربما لا يكون أمرا مستبعدا، وأن هناك عدة عوامل، ربما تسهم في زيادة هذا الاحتمال أهمها الأوضاع المتوترة حاليا في سوريا، ثم الضغوط الداخلية التي يتعرض لها الرئيس الأمريكي دونالد ترامب، وكذلك التحقيقات المتتالية بشأن الفساد التي يتعرض لها رئيس الوزراء الإسرائيلي بنيامين نتانياهو، والتي قد تدفعهما إلى محاولة الهروب عبر سعي لانتصار خارجي.
ومن وجهة نظر مراقبين في المنطقة العربية، تبدو تداعيات أي حرب إيرانية أمريكية، هائلة على المنطقة العربية، في ظل ما تشهده المنطقة بالفعل من حالة اضطراب، وتبدو منطقة الخليج وهي الأقرب لأي حرب محتملة بين الطرفين، الأكثر تضررا في حالة حدوث تلك الحرب.
وفي العديد من المناسبات حذر قادة عسكريون إيرانيون، من أن قواعد أمريكا في منطقة الخليج، ليست بمنأى عن الصواريخ الإيرانية، في وقت يتوقع فيه المراقبون أن تستهدف إيران، في حالة شن هجوم عليها أول ما تستهدف، عدة دول خليجية مباشرة بصواريخها.
وبجانب هجمات مباشرة من هذا النوع، فإن قادة إيرانيين، كانوا قد حذروا أيضا من أن طهران قد تلجأ إلى إغلاق مضيق هرمز، في وجه صادرات النفط الخليجية، المتجهة إلى العالم في حالة تعرضها للهجوم، وهو ما يعني إيقاف صادرات النفط من العراق وكل الدول الخليجية التي تمر عبر هذا المضيق، والتي تمثل نسبة خمس استهلاك العالم من النفط..
وبعيدا عن منطقة الخليج فإن تداعيات حرب من هذا النوع في حالة اندلاعها، ستزيد في نظر البعض من حالة الانقسام التي تعاني منها المنطقة العربية المضطربة بالفعل، والتي تشهد معسكرات متناحرة، فدول الخليج من جانبها وكذلك اسرائيل ستقف بكل ما أوتيت من قوة، وراء أي هجوم أمريكي على إيران، في حين أن المعسكر العربي الموالي لإيران، سيقف ضد مثل هذا الهجوم، وبجانب كل ذلك فإن حربا من هذا القبيل، ستعمق من حالة الاضطراب التي تشهدها عدة دول عربية، تمر حاليا بمراحل رفض لأنظمتها بجانب ما قد تؤدي إليه من تعطيل لخطط التنمية وزيادة في نسب الركود والفقر.

Tuesday, April 23, 2019

هروب شقيقتين سعوديتين: "كنا نعامل كالعبيد"

"كان علينا تغطية وجوهنا وطهو الطعام...مثل العبيد. لا نريد ذلك. نريد حياة حقيقية، نريد حياتنا"، هكذا قالت وفاء، 25 عاما، التي فرت من السعودية مع شقيقتها.
والشقيقتان وفاء ومها السبيعي (28 عاما) الآن في جمهورية جورجيا وتعيشان تحت حماية الدولة التي تقدم لهما المأوى.
وتسعى الشقيقتان لإعلام المجتمع الدولي بقصتهما عبر تويتر وحساب مخصص لذلك بعنوان @ .
وتناشد الشقيقتان الأمم المتحدة لمساعدتهما للذهاب إلى بلد آمن ثالث.
وسافرت الفتاتان لجورجيا لأن السعوديين لا يحتجاون لتأشيرة دخول إليها.
وقالت وفاء "نحتاج دعمكم. نريد الحماية. نريد بلدا يرحب بنا ويحمي حقوقنا".
ووصلت الشقيقتان، اللتان بدا عليهما القلق والذعر، إلى إدارة الهجرة في جورجيا مساء الخميس في صحبة مسؤولين من إدارة الهجرة.
وفي مقابلة مع وسائل الإعلام المحلية، قالتا إنهما لا تشعران بالأمن في جورجيا لأنه سيكون من السهل على أقاربهم الرجال العثور عليهما هناك.
وعندما سُئلتا عن أسباب الشعور بأنهما مهددتان في السعودية، أجابت وفاء "لأننا نساء".
وأضافت "أسرتنا تهددنا كل يوم في بلادنا"، وقالت شقيقتها مها إن لديهما أدلة على ذلك.
ويعد هروب وفاء ومها السبيعيأحدث قضية لنساء يهربن من السعودية، التي يتوجب على المرأة فيها الحصول على إذن من وليها الرجل للعمل أو السفر.
وفي يناير/كانون الثاني 2019 حظيت قضية الفتاة السعودية رهف محمد القنون، 18 عاما، بتغطية إعلامية دولية واسعة، بعد أن سافرت إلى تايلاند ورفضت الخروج من الفندق خشية الترحيل إلى السعودية وناشدت المجتمتع الدولي المساعدة على تويتر.
وحصلت رهف بعد ذلك على حق اللجوء في كندا.
وفي مارس/آذار حصلت شقيقتان سعوديتان أخريان كانتا قد أمضيتا ستة أشهر مختفيتان في هونغ كونغ على تأشيرة إنسانية بعد الفرار، هربا من حياة "العنف والقمع".
وقالت سارا ليا ويتسون مديرة منظمة هيومان رايتسووتش لشؤون الشرق الأوسط "في السعودية يسيطر الرجال على حياة المرأة من المولد حتى الوفاة بسبب نظام وصاية الرجل".
وأضافت "قالت السلطات الجورجية إنها ستحترم حق الشقيقتين في طلب اللجوء، وهو الرد المناسب والمأمول. التركيز الحقيقي الآن هو إزالة التمييز الممنهج الذي تلقاه المرأة في السعودية وتقديم العون للنساء السعوديات اللاتي يواجهن التمييز".
أعلنت المملكة العربية السعودية والإمارات عزمهما إرسال معونات بقيمة 3 مليارات دولار لدعم السودان.
وسوف تحول الدولتان 500 مليون دولار إلى البنك المركزي السوداني قبل ان ترسل معونات غذائية، و طبية، ومنتجات نفطية بقيمة مليارين ونصف المليار دولار حسبما قالت وكالتا الأنباء السعودية والإماراتية.
وقالت رويترز إن ذلك يعد بمثابة إنقاذ للمجلس العسكري الذي يتولى حكم البلاد خلال الفترة الانتقالية بعد الإطاحة بالرئيس البشير على إثر المظاهرات المناهضة لحكمه.
وهذه المعونة هي أول دعم كبير معلن من دول خليجية إلى السودان خلال العقد المنصرم.
وقالت وكالة الأنباء السعودية إن المعونات تهدف إلى "دعم موقف السودان المالي وتخفيف الضغوط على العملة المحلية، وتحقيق الاستقرار في سعر الصرف".
ويرتبط رئيس المجلس العسكري في السودان عبد الفتاح البرهان، ونائبه الفريق أول محمد حمدان دقلو بعلاقات قوية مع الجانبين السعودي والإماراتي بسبب قيادتهما القوات السودانية المشاركة في عمليات التحالف العسكري الذي تقوده السعودية في اليمن.
ويعاني السودان أزمة اقتصادية لازالت تتفاقم بسبب نقص السيولة والخبز والمشتقات النفطية.
ويعتبر الخبراء سوء الإدارة الاقتصادية والفساد وتأثير العقوبات الأمريكية على البلاد من بين أسباب الأزمة.
وكانت الولايات المتحدة قد رفعت في شهر أكتوبر/تشرين أول عام 2017 بعض العقوبات التجارية والاقتصادية عن السودان، لكنه لا يزال على قائمة الدول التي تعتبرها واشنطن راعية للإرهاب.
وقال البرهان إن المجلس العسكري سيوفد لجنة إلى العاصمة الأمريكية واشنطن لبحث رفع السودان من القائمة، لكن واشنطن قالت إنها لن تقبل ذلك طالما استمر الجيش في السلطة.
وعلى مدى السنوات القليلة الماضية، زادت الحكومة السودانية التي تمر بضائقة مالية من طباعة النقد المحلي لتغطية الكلفة الباهظة لدعم الوقود والقمح والأدوية، ما رفع التضخم السنوي إلى 73 في المئة وهوى بقيمة العملة المحلية مقابل الدولار.
على الصعيد السياسي، تفاقم الخلاف بين المجلس العسكري والمتظاهرين الذين يرفضون اضطلاعه بإدارة شؤون البلاد خلال الفترة الانتقالية ويطالبونه بتسليم السلطة فورا لحكومة مدنية.
ولايزال الاعتصام أمام مقر القوات المسلحة الرئيسي في العاصمة الخرطوم قائما رغم المحاولات التي جرت لفضه كما تزايدت أعداد المتظاهرين خلال الأسبوع الجاري.
وقال رئيس المجلس العسكري لقناة التلفزة الرسمية إن المجلس يبحث في تلبية طلب المعارضة تشكيل لجنة مشتركة بين المدنيين والعسكريين لإدارة شؤون البلاد خلال الفترة الانتقالية.
وقال البرهان "الموضوع مطروح للنقاش ولم تتبلور رؤية حوله حتى الآن".
وأردف قائلا "دور المجلس العسكري هو دور مكمل للانتفاضة وللثورة المباركة، والمجلس ملتزم بتسليم السلطة للشعب".
في الوقت نفسه أعلنت قوى الحرية والتغيير في السودان وقف التفاوض مع المجلس العسكري والتعامل معه كامتداد للنظام السابق.
وقالت إن المجلس العسكري "يماطل في تسليم السلطة للمدنيين"، وأكدت أن "الثورة مستمرة وستنتصر لا محالة بإرادة الشعب".
وقال متحدث باسم التحالف خلال مؤتمر صحفي في مقر الاعتصام بمحيط قيادة الجيش الأحد إنهم مستمرون في الاعتصام حتى تحقيق المطالب.
وأضاف "لقد اخترنا التصعيد ضد المجلس العسكري، وعدم الاعتراف بشرعيته، وبالتالي مواصلة الاعتصام والتصعيد الثوري في الشارع".
وتجمع الآلاف خارج مقر قيادة الجيش في العاصمة الخرطوم لإعلان تشكيل المجلس المدني.

Tuesday, March 26, 2019

الدولة الأفريقية الأكثر جذبا للمبتكرين في مجال التكنولوجيا

على هامش القمة الثانية والثلاثين للاتحاد الأفريقي، وقفت الشابة الأثيوبية سلام وندِم في غرفةٍ مكتظةٍ بالحضور من ساسةٍ بارزين ومديرين تنفيذيين مرموقين لتقول: "أنا شابةٌ طموحةٌ وعلى استعداد لتغيير وجه بلادي أثيوبيا".
فقد كانت وندِم، البالغة من العمر 29 عاماً، مدعوةً للحديث أمام هذا التجمع في أحد أرقى فنادق العاصمة أديس أبابا، كواحدة من أصحاب المشاريع في مجال التكنولوجيا. وكانت تأمل في اغتنام هذه الفرصة لإقناع حكومات القارة بدعم النظم التكنولوجية الصديقة للبيئة.
ولحسن حظ وندِم فقد وجدت جمهوراً متجاوباً في أثيوبيا. ففي العام الماضي، شهد هذا البلد انتخاب آبي أحمد، 42 عاما، رئيساً للوزراء. وسرعان ما كان لهذا الرجل بصماته في مجالاتٍ عدة، عبر القيام بسلسلةٍ من الإصلاحات الشاملة، وهو ما تضمن - مثلاً - إطلاق سراح آلاف السجناء السياسيين، واستئناف العلاقات الدبلوماسية مع إريتريا.
وشملت سياساته أيضا إدخال تغييرات على قطاعات التعليم والمالية والاتصالات والأنشطة التجارية، وهو ما شكّل مؤشراً على أن التكنولوجيا أصبحت الآن أولويةً بالنسبة لحكومته.
وفي ضوء ذلك، تؤمن وندِم وغيرها بأن أديس أبابا ربما تكون في طريقها لأن تصبح قريباً واحدةً من مراكز الابتكار الرائدة في أفريقيا، ما يجعلها قد تنافس تلك القائمة بالفعل في هذا المضمار، مثل نيروبي ولاغوس وكيب تاون.
ومن المعروف أن نصف مراكز التكنولوجيا في القارة الأفريقية توجد حالياً في أربعٍة بلدان فقط، وهي كينيا ونيجيريا وجنوب أفريقيا وغانا. وتوفر هذه الدول 75 في المئة تقريباً من تمويل الشركات الناشئة، وهو تمويلٌ يتزايد بوتيرةٍ متسارعةٍ بفعل تدفق المستثمرين على أفريقيا. وفي عام 2018 وحده، ازداد ذلك التمويل بواقع أربعة أضعاف مُقارنةً بالعام السابق.
وتريد الشابة الأثيوبية أن تصبح بلادها وشركتها العاملة في مجال تصنيع المنظومات المستخدمة في مجال "الزراعة في الماء" جزءاً من هذه الموجة من النمو. وساعدها في تأسيس شركتها مركز "بلو موون"، وهو واحدٌ من المراكز الكثيرة المعنية برعاية المواهب والابتكارات في أديس أبابا.
ولا يختلف هذا المركز المؤلف من ثماني طوابق عن نظرائه من المراكز المماثلة في مختلف أنحاء العالم. لكن خلف سماته الشكلية التي تتصف بالجمال، تكمن رؤيةٌ غير معتادةٍ بشأن طبيعة المشكلات التي يتعين على التكنولوجيا إيجاد حلولٍ لها.
وفي هذا السياق، يقول بيتلهم داسي، وهو معلمٌ في مجال التكنولوجيا بمؤسسة "آي كوغ لابس" التي تعد أكبر مركز للذكاء الاصطناعي في البلاد، إن "التكنولوجيا تُستخدم في الدول المتقدمة لتوفير الراحة والرفاهية، لكنها في أثيوبيا توفر الضروريات نفسها".
وبالرغم من أن أثيوبيا شهدت نمواً اقتصادياً مستمراً وبنسبةٍ لا يُستهان بها على مدى عقدين من الزمان، فإنها لا تزال واحدةً من أقل دول العالم من حيث الناتج المحلي الإجمالي، فضلاً عن أن غالبية سكانها من المزارعين الذين يعيشون على حد الكفاف.
والآن يولي الشبان الأثيوبيون اهتمامهم بالتكنولوجيا في محاولة للتغلب على التحديات التي تواجههم. وتقول إيليني غابر-مادين، مُؤسسة "بلو موون"، إن "الأفكار العظيمة تشكل بالأساس حلولاً للمشكلات. وإذا كان هناك ما يوجد لدينا، فهو الكثير من المشاكل".
وترى غابر-مادين أن شركةً مثل "إم - بيسا"، التي تقدم خدماتٍ مصرفيةً عبر الهاتف وتتخذ من كينيا مقراً لها، تمثل نموذجاً يكشف عن كيف يمكن أن تؤدي التكنولوجيا إلى حدوث تحولاتٍ كبيرةٍ وفريدةٍ من نوعها في اقتصاديات الدول النامية. لكن الأمر لا يقتصر على ذلك، فالمناخ في مجالاتٍ مثل الزراعة والتعليم والرعاية الصحية، يبدو مهيئاً الآن لحدوث مثل هذه "الوثبات" التكنولوجية.
ومن بين النماذج الأثيوبية في هذا الصدد، شركةٌ ناشئةٌ تحمل اسم "فلويس"، تتبنى نهجاً راديكالياً على صعيد تصنيع مواسير للمياه بأسعارٍ معقولةٍ وباستخدام تقنياتٍ متطورة.
يقول ماركوس ليما، وهو أحد مؤسسي الشركة: "هناك الكثيرون ممن يسيرون لمسافاتٍ طويلةٍ للعثور على المياه. نريد ابتكاراً من النوع الذي يكون ذا مغزى في السياق المجتمعي من أجل إيجاد حلولٍ محليةٍ للمشكلات" الموجودة في المجتمع المحلي."

Wednesday, March 13, 2019

जो कि बाद में इतने अच्छे साबित

केएम सिंह आगे बताते हैं, "अस्सी के दशक में पंजाब की हालत बहुत ख़राब थी. वो पंजाब गए और ब्लैकथंडर ऑपरेशन में उनका जो योगदान रहा उसका वर्णन करना बहुत मुश्किल है. भारतीय पुलिस में 14-15 साल की नौकरी के बाद ही पुलिस मेडल मिलता है. ये अनूठे अफ़सर थे जिन्हें मिज़ोरम में सात साल की नौकरी के बाद ही पुलिस मेडल दे दिया गया. सेना में कीर्ति चक्र बहुत बड़ा पुरस्कार माना जाता है, जो सेना के बाहर के लोगों को नहीं दिया जाता. अजित डोभाल अकेले पुलिस अफ़सर हैं जिन्हें कीर्ति चक्र भी मिला."
डोभाल के जानने वालों का मानना है कि 2005 में रिटायर हो जाने के बावजूद भी वो ख़ुफ़िया हल्क़ों में काफ़ी सक्रिय थे. अगस्त 2005 के विकीलीक्स केबल में ज़िक्र है कि डोभाल ने दाऊद इब्राहिम पर हमला करवाने की योजना बनाई थी लेकिन मुंबई पुलिस के कुछ अधिकारियों की वजह से इसे अंतिम समय पर अंजाम नहीं दिया जा सका.
हुसैन ज़ैदी ने अपनी किताब 'डोंगरी टू दुबई' में इस घटना का विस्तार से ज़िक्र किया है. अगले दिन टाइम्स ऑफ़ इंडिया के मुंबई संस्करण में इस बारे में एक ख़बर भी छपी लेकिन डोभाल ने इसका खंडन किया. उन्होंने मुंबई मिरर को दिए इंटरव्यू में बताया कि उस समय वो अपने घर में बैठकर फ़ुटबाल मैच देख रहे थे.
जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने और अजित डोभाल को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बनाया तो लोगों को आश्चर्य नहीं हुआ. उसके बाद से मोदी सरकार में उनकी पैठ इस हद तक बढ़ गई कि कहा जाने लगा कि उन्होंने गृहमंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के असर को कम कर दिया है.
इसमें कोई संदेह नहीं कि उनकी निगरानी में भारत को कुछ बड़ी सफलताएं मिलीं हैं, चाहे वो फ़ादर प्रेम कुमार को आईएस के चंगुल से छुड़वाना हो या श्रीलंका में छह भारतीय मछुआरों को फाँसी दिए जाने से एक दिन पहले माफ़ी दिलवाना हो या देपसाँग और देमचोक इलाक़े में स्थायी चीनी सैन्य कैपों को हटाना हो डोभाल को वाहवाही मिली है लेकिन कई मामलों में उन्हें नाकामयाबी का मुंह भी देखना पड़ा है.
नेपाल के साथ जारी गतिरोध, नगालैंड के अलगाववादियों से बातचीत पर उठे सवाल, पाकिस्तान के साथ असफल बातचीत और पठानकोट हमलों ने अजित डोभाल को सवालों के कठघरे में खड़ा कर दिया है.
अंग्रेजी के अख़बार 'इंडियन एक्सप्रेस' के सह संपादक सुशांत सिंह कहते हैं, "आप मानेंगे कि जहाँ तक पड़ोसी देशों का संबंध है, भारत की स्थिति पिछले कुछ सालों में अच्छी नहीं रही है. चाहे मालदीव हो, चाहे नेपाल हो या पाकिस्तान के साथ कभी हाँ कभी ना का माहौल है. जहाँ तक आतंक और आंतरिक सुरक्षा का सवाल है, भारत पर दो-तीन आतंकवादी हमले हुए हैं, चाहे वो पठानकोट का हमला हो या गुरदासपुर का. कश्मीर में आतंकवाद बढ़ा है."
"इस क्षेत्र में अजित डोभाल से ज़्यादा उम्मीदें थीं क्योंकि ये उनका फ़ील्ड था. लेकिन यहाँ भी वो बेहतर काम नहीं कर पाए हैं."
वहीं जानेमाने सामरिक विश्लेषक अजय शुक्ल कहते हैं, "अजित डोभाल अपने समय के एक बहुत ही क़ाबिल और सफल इंटेलिजेंस अफ़सर रहे हैं. लेकिन ये कोई ज़रूरी नहीं कि अगर कोई शख़्स अपने फ़ील्ड का विशेषज्ञ हो तो दूसरे फ़ील्ड में भी उसको उतनी ही महारत हासिल होगी."
शुक्ल कहते हैं, "उनकी जानकारी विदेशी संबंधों, कूटनीति और सैनिक ऑपरेशनों के बारे में उतनी नहीं है जितनी इंटेलिजेंस के क्षेत्र में. जब ऐसा ऑपरेशन आता है जिसमें ये तीनों पहलू मौजूद होते हैं तो एक इंसान के लिए अपने स्तर पर सारे फ़ैसले लेना शायद उचित नहीं है. ऐसे जटिल ऑपरेशन के समय उन्हें सारे फ़ैसले ख़ुद लेने की बजाए क्राइसिस मैनेजमेंट ग्रुप की बैठक बुलानी चाहिए थी. अकेले ऐसे फ़ैसले लेने से बचना चाहिए था, जो कि बाद में इतने अच्छे साबित न हों."V

Monday, February 18, 2019

حقوق المرأة: هل يمكن أن تصل امرأة تونسية للرئاسة هذا العام؟

دعت ساهلي زويدي، أول امرأة ترأس إثيوبيا، النساء في تونس على أن يعملن للوصول إلى منصب رئاسة الجمهورية، غير أن الأمر ليس بالجديد على التونسيات، حيث حاولت بعضهن الوصول إلى قصر قرطاج - ولم ينجحن.
وبعد خمسة أعوام على تلك المحاولة في انتخابات 2014 الرئاسية، لا تبدو نساء تونس متفائلات بإمكانية أن تشهد تونس هذا العام انتخاب رئيسة للبلاد.
تقول رحمة الصيد، وهي باحثة في الثلاثين من عمرها، تُعد أطروحة دكتوراه في القانون: "صعب جدا أن ترأس تونس امرأة هذا العام. لكن ربما عام 2024".
علما أن صلاحيات رئيس الجمهورية لم تعد كما كانت، حيث زاد دستور البلاد الجديد من صلاحيات البرلمان.
في عام 2014، حاولت ثلاث نساء الترشح لمنصب الرئيس في تونس، ولكن قُبل ترشح واحدة فقط هي القاضية كلثوم كنو؛ فكانت بذلك أول امرأة في تاريخ تونس، تنافس 25 رجلا، على هذا المنصب.
ويومها، لم يقبل طلب ترشح آمنة منصور القروي، أستاذة الاقتصاد ورئيسة حزب الحركة الدّيمقراطية للإصلاح و البناء، كما سحبت ليلى الهمامي ترشحها.
لكن هذا لم يمنع أستاذة الاقتصاد الدولي، ليلى الهمامي، من إعلان ترشحها لانتخابات ديسمبر/كانون الأول 2019.
ويتوقع ترشح أخريات خاصة، إذ ما زالت ثمانية أشهر تفصلنا على موعد الانتخابات.
وكانت زويدي، أول امرأة ترأس إثيوبيا، قد قالت عند لقائها رئيس تونس الباجي قايد السبسي في أديس أبابا إن هدف المرأة التونسية القادم يجب أن يكون تولي رئاسة الجمهورية، وفقا لإذاعة موزاييك إف إم.
وعلى الرغم من قوانينها التي توصف بالتقدمية مقارنة بكثير من البلاد العربية، فيما يتعلق بحقوق المرأة تحديدا، لم تتمكن المرأة بعد من الوصول إلى مراكز اتخاذ القرار السياسي في تونس.
تقول رحمة الصيد إن القانون التونسي لا يستثني النساء من الترشح والفوز بالرئاسة، لكنها تُضيف أن المشكلة لا تتعلق بانتخاب رجل أو امرأة: "المشكلة للأسف أن الأسماء المعروفة هي من تصل إلى الرئاسة".
وتضيف: "المشكلة الأخرى تكمن في عمق المجتمع التونسي الذي لا يزال محافظا نوعا ما، وبالتالي لا يتقبل ترشيح امرأة لتصبح قائدة، رغم أن قانون تونس متقدم جدا في ما يتعلق بحقوق المرأة".
ومن أصل 26 حقيبة وزارية، هناك ثلاث وزيرات في تونس، لكن وزاراتهن ليست سيادية.
وهذا هو حال معظم البلاد العربية؛ حيث لا تحصل النساء غالبا إلا على حقائب وزارات شؤون المرأة مثلا، والثقافة، والشؤون الاجتماعية.
لكن لبنان كسر هذه القاعدة وعين مؤخرا أول وزيرة للداخلية - في سابقة في البلاد العربية.
وكانت موريتانيا قد عينت عام 2009 وزيرة خارجية هي الناها بنت مكناس ـ لتكون بذلك البلد العربي الوحيد الذي يتخذ مثل هذه الخطوة.
تتفق يسرى الصغير، مع الأسباب التي طرحتها رحمة الصيد لعدم إمكانية وصول امرأة لمنصب رئيسة. ويسرى مدرسة وناشطة نسوية ساهمت بتأسيس تجمع نسوي يدعى "شمل".
وتقول: "حتى اليوم لا وجود لوجوه سياسية نسائية بارزة".
وتضيف: "الشعب غير مستعد حتى الآن للتصويت لامرأة لرئاسة الجمهورية، رغم وجود بعض النساء البارزات لكن ليس إلى درجة واضحة - حتى في قيادات الأحزاب. فغالبا ما تأتي المرأة في المرتبة الثانية أو الثالثة".
وعند سؤالها عن وصول سعاد عبدالرحيم لمنصب غير معتاد أن تشغله امرأة، هو منصب مشيخة تونس (أو رئاسة بلدية) العاصمة، قالت إن حزب النهضة (الإسلامي) قدمها "كواجهة" للحزب، باعتبارها امرأة ذات كفاءة.
وعموما يُنتقد حزبا تونس البارزان، النداء الليبرالي والنهضة الإسلامي، على "توظيف" مشاركة المرأة كورقة انتخابية لكسب الأصوات، ولتمثيل الحزب في وسائل الإعلام.
وتصف كل من رحمة الصيد ويسرى الصغير مشاركة المرأة في الحياة السياسية في تونس بال "شكلية".
وتقول رحمة: "يكفل الدستور مبدأ التناصف بين المرأة والرجل في عديد من المجالات منها قوائم الانتخابات وفرص العمل". لكنها تضيف أن هذه القاعدة كثيرا ما تكسر.
وتضيف يسرى الصغير على ذلك قائلة: "قيادات الأحزاب رجالية، الأمر الذي يضع عراقيل في وجه النساء. فغالبا ما تتشكل المكاتب التنفيذية في الأحزاب من الرجال، وبيدهم صنع القرار".