यहां ये याद करना भी ज़रूरी है कि 1991 में फ़ैसला होने के बावजूद 2001 तक सरकार इस रास्ते सिर्फ़ 20078 करोड़ रुपए ही जुटा पाई थी, जबकि लक्ष्य
था 54 हज़ार करोड़ रुपए का. 1991-92 में 31 कंपनियों में हिस्सा बेचकर
क़रीब तीन हज़ार करोड़ रुपए मिले थे, यानी शुरुआत तुरंत हो गई थी. जी वी रामकृष्ण की अध्यक्षता में विनिवेश आयोग भी 1996 तक 13 रिपोर्ट दे चुका
था.
उसने 57 कंपनियों में हिस्सेदारी बेचने की सिफ़ारिश की थी. तब
भी दस साल में ये लक्ष्य पूरा क्यों नहीं हो पाया? इसके जवाब में मुंबई
स्टॉक एक्सचेंज की वेबसाइट पर सात कारण गिनाए गए हैं-
1. बाज़ार की हालत ठीक नहीं.
2. सरकार ने बिक्री का जो प्रस्ताव रखा वो निजी क्षेत्र के निवेशकों के लिए आकर्षक नहीं था.
3. वैल्यूएशन यानी बिक्री के भाव का हिसाब लगाने पर भारी विरोध.
4. हिस्सेदारी बेचने की कोई साफ़ नीति नहीं थी.
5. कर्मचारियों और ट्रेड यूनियनों का जोरदार विरोध.
6. बिक्री के काम में पारदर्शिता का अभाव.
7. राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी.
और
इस दौरान जो विनिवेश या हिस्सा बिक्री हुई भी वो ज़्यादातर कंपनियों में छोटी छोटी हिस्सेदारी बेचकर हुई. इन शेयरों की बिक्री से मिलनेवाली रकम भी
बहुत कम थी, जबकि इसमें इंडियन ऑयल, बीपीसीएल, एचपीसीएल, गैस ऑथोरिटी और
विदेश संचार निगम जैसी ब्लू चिप कंपनियों के शेयर शामिल थे. वजह साफ़ थी,
प्राइवेट इन्वेस्टरों को किसी ऐसी कंपनी के शेयर खऱीदने में कोई दिलचस्पी थी नहीं जिसे चलाने का काम बाद में भी सरकार के इशारे पर ही होता रहनेवाला
है.
इसलिए जो शेयर बिके भी वो ज़्यादातर घरेलू वित्तीय संस्थानों यानी
एलआइसी और यूटीआई जैसे संस्थानों ने ही खऱीदे. दाम ज़्यादा नहीं थे इसलिए वक्त के साथ ये निवेश फ़ायदेमंद तो रहा. लेकिन अगर पब्लिक सेक्टर यानि
पब्लिक के पैसे से चलनेवाली कंपनियों के शेयर वापस पब्लिक सेक्टर के ही
संसाधनों के हाथ जाने हैं तो सरकार को या सरकारी ख़जाने को मिला क्या? इसकी
टोपी उसके सर वाला ये खेल कई और तरह से भी होता है.
अभी एचपीसीएल का
विनिवेश होना था.पूरा कंपनी एक दूसरी सरकारी कंपनी ओएनजीसी को सौंप दी गई,
या बाज़ार की भाषा में कहें तो चिपका दी गई. म
लेकिन फिर इसका एक पहलू और है.जब देश आज़ाद हुआ था, तब बहुत से काम ऐसे थे जो सरकार न करती तो शायद नहीं हो पाते. होते तो किस अंदाज़ में होते ये
पता नहीं. बड़े बिजलीघर लगाने हों, बांध बनाने हों, रिफ़ाइनरी बनानी हों,
इस्पात के कारखाने लगाने हों या फिर इंफ्रास्ट्रक्चर के बड़े प्रोजेक्ट
तैयार करने हों. शायद इसीलिए सरकार ने इन्हें खुद करने की ठानी और जवाहरलाल नेहरू ने इन उद्योगों को आधुनिक भारत के नए मंदिर बताया.
हो सकता है
कि वक्त के साथ अब ये ज़रूरी न रह गया हो.लेकिन अब भी इस बात की क्या
गारंटी है कि सरकार बाहर हो जाएगी तो प्राइवेट कंपनियां मनमानी नहीं
करेंगी? गारंटी वैसे भी क्या है. टेलिकॉम सेक्टर में सरकार और रेगुलेटर की
नाक के नीचे, बल्कि उसकी शह पर जिस तरह एक कंपनी ने बाज़ार पर कब्जा किया
वो किसे नहीं दिख रहा है?
और पब्लिक सेक्टर में जो कंपनियां बरबाद
हुईं उनकी बरबादी की ज़िम्मेदारी किसकी है? क्या ये सच नहीं है कि सरकार ने
मुनाफ़ा कमानेवाली कंपनियों को दुधारू गाय की तरह इस्तेमाल किया और दूध तो
दूध खून तक निचोड़ लिया. बीएसएनएल और एमटीएनएल आज से दस साल पहले तक किसी भी प्राइवेट कंपनी से मुक़ाबला कर रहे थे.
मुझे याद है जब एमटीएनएल
ने मोबाइल फोन लॉंच किया तब उसके चेयरमैन एस राजगोपालन ने मुझसे ही कहा था.
'मोबाइल की ज़रूरत मेरे जैसे लोगों को नहीं, उस प्लंबर या इलेक्ट्रीशियन को है जो दिन भर घर से बाहर रहता है और इस चक्कर में बहुत से ग्राहक खो
देता है.' तब मज़ाक़ सा लगा था मुझे, पर सच था. वो सपना तो आज से बहुत पहले
सच हो गया लेकिन वो कंपनी खुद फसाना बन गई है. हालत ये है कि अब उसके
बिक़ने पर भी शक़ है.
एयर इंडिया, आइटी़डीसी और होटल कॉर्पोरेशन की
कहानी और दुखभरी है. मंत्रियों, नेताओं और सरकारी अफसरों ने जमकर इनका
दुरुपयोग किया. इकोनॉमी टिकट ख़रीदकर बिजनेस या फर्स्ट क्लास में अपग्रेड
तो एयर इंडिया में जैसे कुछ था ही नहीं. इसी चक्कर में बिजनेस क्लास से जाने वाले यात्रियों को टिकट तक नहीं मिल पाते थे.
बस मुफ्तखोरों की
सेवा. यही हाल होटलों का था. रजिस्टर में चढ़ाकर या बिना चढ़ाए, बिना बिल
भरे या भारी डिस्काउंट के साथ कमरों में क़ब्जा बना रहता था मुफ्तखोरों का और इसी चक्कर में असली ग्राहक इन होटलों से दूर रहता था.
जे की बात ये है कि ओएनजीसी
का नाम भी उन कंपनियों की लिस्ट में शामिल है जिनमें सरकार की बड़ी
हिस्सेदारी बिक सकती है.
बाज़ार के जानकार सरकार को सलाह दे चुके हैं कि कौन सी कंपनियों में पूरी हिस्सेदारी बेची जाए तो सरकार को तत्काल दस
लाख करोड़ रुपए से ज़्यादा की रकम मिल सकती है.और अगर इन्हीं कंपनियों में
सिर्फ़ इक्यावन प्रतिशत से ऊपर की हिस्सेदारी ही बेच दी जाए तब भी क़रीब
ढाई लाख करोड़ रुपए से ज़्यादा मिलेगें.
हालांकि ये सलाह पिछले साल दी गई थी.नाम न बताने की शर्त पर एक बड़े फंड मैनेजर ने कहा कि ज़्यादातर
सरकारी कंपनियां एक तरह से पैरासाइट या परजीवी हैं जो अर्थतंत्र का खून चूस
रही हैं. ज़ाहिर है वो भारी मुनाफे़ वाली कंपनियों की बात नहीं कर
रहे.अपने तर्क के समर्थन में उनका कहना है कि जब घाटा होता है तो इन्हें
सरकार से मदद चाहिए होती है. कर्ज की ज़रूरत है तो जहां बाज़ार में बारह
परसेंट ब्याज़ पर क़र्ज मिल रहा है, तो इन्हें छह परसेंट पर मिल जाता है क्योंकि पीछे सरकार की गारंटी है.
ये एक तरह की सब्सिडी है.ऐसे ही इन
कंपनियों के पेंशन फंड में गिरावट आई तो उसकी कमी सरकार को भरनी पड़ती
है.और कहीं नए प्रोजेक्ट लगाने हों तो सरकार ही इन्हें सस्ते दामों पर
ज़मीन भी दिलवाती है. ऐसी पूरी लिस्ट है. किसी कंपनी पर वो लिस्ट लंबी हो तो किसी पर छोटी.
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