शेयर बाज़ार क्यों चढ़ता और क्यों गिरता है, इसका सटीक जवाब किसी
एक्सपर्ट के लिए बताना नामुमकिन तो नहीं है, लेकिन आसान कतई नहीं है. अगस्त
2013 से शेयर बाज़ारों ने तेज़ी की राह पकड़ी थी और कुछेक स्पीड ब्रेकर्स
को छोड़ दें तो बाज़ार में बुल सरपट भाग रहा था और इस रेस में मंदड़िये ख़ुद को किसी तरह बचाए घूम रहे थे.
लेकिन कहा जाता है कि बाज़ार को चलाने में जितनी भूमिका मज़बूत फ़ंडामेटल्स, आर्थिक नीतियों और जीडीपी
आंकड़ों की होती है, उससे ज़्यादा ये फ़ैक्टर काम करता है कि कुल मिलाकर
सेंटिमेंटस क्या हैं? यूं भी भारतीय शेयर बाज़ारों पर विदेशी संस्थागत
निवेशकों यानी एफ़आईआई की मज़बूत पकड़ है और अगर उन्हें अपने नुकसान की
ज़रा भी आशंका होती है तो वो अपना पैसा लेकर अपने घर रफू चक्कर होने में
जरा भी वक्त नहीं लगाते.
पिछले 24 कारोबारी सत्रों में सेंसेक्स 3700 से अधिक अंकों का गोता लगा चुका है. 29 अगस्त को सेंसेक्स ने अपना 52
हफ्तों का उच्चतम स्तर बनाया था और ये 38,989 की ऊँचाई पर पहुँच गया था.
बैंक,
आईटी, फ़ार्मा, एफएमसीजी, कंज्यूमर ड्यूरेबल्स, ऑटोमोबाइल्स या फिर एनबीएफ़सी....कोई भी शेयर इस 'क़त्लेआम' से नहीं बच सका है. कुछ दिनों पहले
तक जब मिडकैप और स्मॉलकैप कंपनियों की पिटाई हो रही थी, तब कहा जा रहा था कि बाज़ार में ब्लूचिप कंपनियों के शेयर सुरक्षित दांव हैं, लेकिन पिछले दो
दिनों की गिरावट ने इस भ्रम को भी तोड़कर रख दिया है.
गुरुवार को
30 शेयरों वाले सेंसेक्स में सिर्फ़ छह शेयर ही ऐसे रहे, जो मुनाफ़ा देने
में कामयाब रहे. रिलायंस इंडस्ट्रीज़, हीरो मोटर्स, टाटा कंसल्टेंसी के
शेयर 5 से लेकर 7 फ़ीसदी तक टूट गए.
एक्सपर्ट से पूछें तो इस गिरावट के कारण तो कच्चा तेल, रुपया और महंगाई का डर है, लेकिन लगातार ख़राब हो रहे सेंटिमेंट से सभी चिंतित हैं.
आर्थिक
विश्लेषक सुनील सिन्हा कहते हैं, "पहला बड़ा कारण है कच्चा तेल और दूसरा
है रुपये की गिरती साख. उम्मीद की जा रही थी कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में
कच्चा तेल 70 रुपये प्रति बैरल के आस-पास ही रहेगा, लेकिन अब तो ये 76 डॉलर
तक पहुँच गया है. तेल महंगा हो रहा है तो उत्पादन की लागत भी बढ़ रही है
यानी कुल मिलाकर महंगाई बढ़ने का ख़तरा है. महंगाई बढ़ेगी तो रिज़र्व बैंक
को इसे काबू में करने के लिए ब्याज दरें बढ़ाने का चाबुक चलाना होगा."
विश्लेषक
मानते हैं कि रिज़र्व बैंक ब्याज दरों में 0.25 फ़ीसदी की बढ़ोतरी कर सकता
है. अगर ऐसा हुआ तो जून के बाद ब्याज दरें 75 बेसिस प्वाइंट्स बढ़ जाएंगी.
इससे पहले, सितंबर 2013 और जनवरी 2014 के बीच ब्याज दरों में ऐसी बढ़त देखने को मिली थी.
रुपया लगातार अपनी क़ीमत गंवाता जा रहा है. गुरुवार को ये 73.77 के स्तर तक पहुंच गया है. ये अब तक का सबसे निचला स्तर है.
दिल्ली
स्थित एक रिसर्च फ़र्म से जुड़े आसिफ़ इक़बाल बताते हैं, "मुश्किल ये है कि विदेशी संस्थागत निवेशकों की भारत से पैसे निकालने की रफ़्तार बढ़ रही
है. अप्रैल के बाद से अब तक एफ़आईआई बाज़ारों से अरबों डॉलर निकाल चुके
हैं. इसकी वजह ये है कि भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं में मुनाफ़ा तो
अच्छा मिलता है, लेकिन जोखिम भी उतना ही होता है. अमरीकी केंद्रीय बैंक ने
2015 के बाद से लगातार आठ बार ब्याज दरों में बढ़ोतरी की है और अब ये सवा
दो फ़ीसदी के स्तर पर पहुँच गया है."
सुनील सिन्हा इसी बात को आगे
बढ़ाते हुए कहते हैं, "इस बात को समझने की ज़रूरत है कि रुपये को संभालने
के भारत के पास विकल्प बहुत अधिक नहीं हैं. ऊपर से तेल भी डॉलर में ख़रीदना
पड़ता है. कहा तो ये भी जा रहा था कि रिज़र्व बैंक तेल कंपनियों के लिए
स्पेशल डॉलर विंडो खोलेगा, लेकिन ये भी अफ़वाह ही निकली."
बाज़ार बंद होने से ठीक पहले वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सेंटिमेंट
सुधारने की कुछ पहल की. उन्होंने घोषणा की कि केंद्र सरकार पेट्रोल और
डीज़ल पर डेढ़ रुपये प्रति लीटर की एक्साइज़ ड्यूटी कम करेगी. इसके अलावा
तेल कंपनियों को भी एक रुपये का घाटा सहन करना होगा. लेकिन अर्थव्यवस्था के
लिए क्या ये उपाय फौरी नहीं हैं. सुनील सिन्हा इस सवाल के जवाब में कहते
हैं, "वैसे कहने को तो पेट्रोल-डीज़ल की क़ीमतों पर सरकारी नियंत्रण नहीं
है, लेकिन पहले भी कई ऐसे मौके आए हैं, जब ये नियंत्रण में दिखी हैं, जैसे
कर्नाटक विधानसभा चुनावों के दौरान. लेकिन इससे वित्तीय घाटा बढ़ने की
आशंका भी है."
इस सवाल पर आसिफ़ इक़बाल कहते हैं, "विदेशी निवेशक और बाज़ार का सेंटिमेंट अब तक इसलिए पॉज़ीटिव था कि सरकार बार-बार दोहरा रही
थी कि चालू वित्तीय घाटे को 3.3 फ़ीसदी तक थामे रखेगी, लेकिन अब जिस तरीके
से तेल के भाव और रुपये की गिरावट से सरकार के हाथ-पाँव फूल रहे हैं, उससे
लगता नहीं है कि वो चालू वित्तीय घाटे का लक्ष्य हासिल करने में कामयाब
रहेगी."
हालाँकि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने इस फ़ैसले का बचाव
करते हुए कहा कि ये निर्णय इसी बात को ध्यान में रखते हुए लिया गया है कि
चालू वित्तीय घाटा न बढ़े. जेटली ने कहा, "तेल मार्केटिंग कंपनियों की माली
हालत पहले के मुक़ाबले अब बहुत बेहतर है. वो पहले भी ऐसा कर चुकी हैं.
डीरेग्युलेशन का सवाल ही नहीं है. लेकिन वित्तीय घाटे पर असर डाले बिना अगर हम पेट्रोल-डीज़ल घटा सकते हैं तभी हमने ये किया है."